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परिणति नहीं है, परन्तु सच्चा वैराग्य है वह दुःखरूप परिणति नहीं है। दुःखगर्भित वैराग्य
हो तो वह दुःखरूप परिणति है। सच्चा वैराग्य हो तो वह दुःखरूप परिणति नहीं है।
विज्ञानघन स्वभाव बढता जाय, उसमें विभावसे निवृत्ति और विभावसे विरक्ति होती है
और स्वभावकी ओर परिणति होती है। इसलिये वह दुःखरूप नहीं है। विरक्ति दशा,
ज्ञायककी परिणति विशेष प्रगट होती जाती है।
मुमुक्षुः- शान्तिरूप है?
समाधानः- शान्तिरूप है। विभावकी प्रवृत्तिसे निवृत्ति हो और स्वभावकी परिणति होती है। विरक्त दशा। सच्चा वैराग्य उसे कहते हैं कि अंतरमें ज्ञायककी परिणति हो और विभावसे विरक्ति हो। शान्तिमय दशा है। दुःखगर्भित वैराग्य हो वह अलग बात है।
.. ज्ञान और वैराग्य साथमें रहते हैं। शास्त्रको जानता है, सब करता है, लेकिन भीतरमें यदि वैराग्य नहीं हुआ तो किस कामका? अकेला शुष्कज्ञान क्या करता है? भीतरमें विरक्ति, विभावसे विरक्ति होनी चाहिये। और साथमें वैराग्य होवे। संसारमें अच्छा नहीं लगे। स्वभावमें सबकुछ है। ऐसी रुचि, निर्णय ऐसा होना चाहिये। मात्र शास्त्र पढ ले, परन्तु भीतरमें मैं आत्माका कल्याण करुँ, ऐसा यदि साथमें वैराग्य नहीं हो तो अकेला ज्ञान कुछ नहीं कर सकता।
कोई अकेला वैराग्य करे कि संसारमें दुःख है, ऐसा है, ऐसा करके वैराग्य करता है, सब छोड देता है, त्याग करता है, व्रत करता है, सब करता है। परन्तु जाना कहाँ? किस मार्ग पर जाना है? यह ज्ञान नहीं होवे तो किस कामका? जीवने ऐसा अनन्त बार किया। सब दुःख लगा, संसारमें दुःख है। सब छोडकर मुनि हुआ, ऐसा हुआ। परन्तु ज्ञान नहीं है, आत्माका ज्ञान नहीं हुआ। वह किस कामका? दोनों साथमें होने चाहिये।
अकेला ज्ञान और अकेला वैराग्य करनेसे लाभ नहीं होता है। ज्ञानके साथ वैराग्य होना चाहिये और वैराग्यके साथ ज्ञान होना चाहिये। ज्ञान ऐसा प्रयोजनभूत तो होना चाहिये कि किस मार्ग पर जाना है? कहाँ जाना है? आत्माका क्या स्वभाव है? आत्मामें सुख है, आत्मामें आनन्द है। ऐसा ज्ञान होना चाहिये। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव ज्ञायक स्वभाव है। ऐसा ज्ञान साथमें होना चाहिये। आत्माके द्रव्य-गुण-पर्यायका (ज्ञान होना चाहिये)। आत्माका द्रव्य क्या, गुण क्या, पर्याय क्या। सबका ज्ञान होना चाहिये।
अकेला त्याग कर देता है, छोड देता है। आता है न? "यम नियम संयम आप कियो, त्याग वैराग्य अथाग लियो', सब किया। परन्तु यदि आत्मज्ञान नहीं हुआ तो