९२ सब शुभभाव हुआ, पुण्यबन्ध हुआ। नौंवी ग्रैवेयक गया, लेकिन आत्माका ज्ञान नहीं हुआ तो भवका अभाव नहीं हुआ। शास्त्र पढ लेता है, परन्तु भीतरमें वैराग्य नहीं हुआ कि यह अच्छा नहीं है, यह परद्रव्य है। स्वद्रव्य कोई अपूर्व अलौकिक चीज है, इसकी महिमा नहीं की, विभावसे विरक्ति-वैराग्य नहीं आया। अकेला शास्त्रका स्वाध्याय किया, परन्तु भीतरमें कुछ नहीं किया तो भी लाभ नहीं हुआ।
मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्यलिंगी तो बहुत ज्ञान और वैराग्य करता है। फिर भी सिद्धि नहीं होती है?
समाधानः- ज्ञान और वैराग्य दोनों करता है, परन्तु ज्ञान ऐसा किया कि आत्माका ज्ञान नहीं किया। वैराग्य भी ऐसा भीतरमेंसे नहीं किया। बाहरसे सब छोड दिया। सह छोडकर चला गया। ऐसी क्रिया की, बहुत की। जैसा शास्त्रमें आता है, ऐसी बाहरसे बहुत क्रिया की। ज्ञान भी बहुत हुआ। भीतरमेंसे ग्यारह अंगका ज्ञान हो गया। लेकिन भीतरमें आत्मतत्त्वको नहीं पहचाना।
मैं आत्मा कौन हूँ? और मेरा क्या स्वभाव है? मैं कोई अदभुत चैतन्य द्रव्य हूँ। ऐसे द्रव्यको पहचाना नहीं। उसकी महिमा नहीं आयी। उसे वैराग्य नहीं हुआ, भीतरमेंसे नहीं हुआ। ज्ञान भी हुआ, वैराग्य भी हुआ, सब ऊपरसे। ग्यारह अंग तो भीतरमेंसे क्षयोपशम हो गया। ग्यारह अंगका (ज्ञान हुआ), परन्तु मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको नहीं पीछाना। ज्ञान और वैराग्य दोनों साथमें है। ऊपरसे साथमें हुए। भीतरमें जो मूल तत्त्व है, उस तत्त्वको नहीं पीछाना। सब बोलता है, विचार करता है, द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसा है, ऐसा है, चर्चा करता है, परन्तु भीतरमें मूल तत्त्व, चैतन्यतत्त्व भीतरमेंसे नहीं पीछाना। ऐसा ज्ञान कुछ कामका नहीं हुआ।
वैराग्य भी भीतरमेंसे (नहीं हुआ)। बाहरसे छोड दिया, लेकिन भीतरमें उस शुभभावमें रुचि रह गयी। ऐसी रुचि रह गयी गहराईमें कि उसे ख्यालमें नहीं आता। अशुभभावसे तो वैराग्य हुआ, लेकिन शुभभावमें रुचि रह गयी। शुभाशुभ भावसे भी भिन्न हूँ। ऐसा वैराग्य भीतरमेंसे नहीं हुआ। बस, अकेला निवृत्तिमय चैतन्यतत्त्व निर्विकल्प तत्त्वमें ही सुख है, बाहर कहीं भी सुख नहीं है, ऐसा निर्णय और ऐसी रुचि नहीं हुयी। शुभभावमें रुचि रह गयी।
मुमुक्षुः- व्रत, नियम धारण किये उसे समय रुचि ठीक है?
समाधानः- व्रत, नियम धारण किये लेकिन भीतरमें रुचि शुभभावमें रह गयी। शुभभावमें रुचि रह गयी। शुभभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं है। शुभभावसे देवलोक होता है, परन्तु भवका अभाव नहीं होता है। शुभभाव बीचमें होता है, लेकिन वह आत्माका स्वभाव तो नहीं है। वह भी विभाव है। प्रवृत्तिमय है, आकुलतामय है,