१०० उस अनुसार (परिणति होती है)। अंतरसे भावना...
बाहरमें भी उसके अनुकूल संयोग.. उसके साथ कुदरत बन्धी हुयी है। उसे बाह्य साधन भी उस प्रकारके परिणमते हैं। सब उस प्रकारसे परिणमते हैं। कुदरत बन्धी हुयी है। और यथार्थ भावना हो उसके अनुकूल जो उसकी साधक दशा है, उस साधक दशाके अनुकूल बाह्य निमित्त भी वैसे होते हैं। उसका उपादान उस प्रकारका, बाहरमें निमित्त भी वैसे होते हैं और द्रव्यका परिणमन भी उस प्रकारका होता है। कुदरत बन्धी हुयी है।
अन्दर यथार्थ भावना हो और बाहरके ऐसे निमित्त, साधन न मिले ऐसा भी नहीं बनता। ऐसे यथायोग्य साधन मिलते हैं, ऐसे साधक मिले, ऐसे गुरु मिले, ऐसे भगवान मिले। ऐसे सब निमित्त भी (प्राप्त होते हैं)। भावनाके साथ कुदरत बन्धी हुयी है। परन्तु वह भावना अंतरकी होनी चाहिये। उसकी भावनाके साथ जो शुभभाव होते हैं, वह भी ऐसे होते हैं कि बाह्य निमित्त भी वैसे होते हैं। अन्दर द्रव्य भी उस प्रकारका परिणमन करे।
मुमुक्षुः- अंतरकी भावना तो शुभभावरूप है। सम्यग्दर्शन प्रगट होने पूर्व जो भावना है वह तो शुभभावरूप है। फिर भी वह आत्माका आश्रय लेकर ही रहती है..
समाधानः- शुभ भावना शुभभाव है, परन्तु अंतरमें उस शुभभावके पीछे उसका आश्रय जो है... उसे जाना है आत्माकी ओर, आत्माकी ओर जाना है वह बलपूर्वक जाना है। उसे शुभभाव नहीं चाहिये। शुभाशुभ भावसे भिन्न ऐसा आत्मा चाहिये। उसके पीछे रहा जो उसकी परिणतिका जोर है, उसकी परिणतिका जोर आत्माकी ओर है। शुभभाव तो साथमें रहा है, परन्तु उसका पूरा जोर आत्माकी ओर-चैतन्यकी ओर जाता है। इसलिये चैतन्यकी परिणति शुभभावको गौण करके भी चैतन्यकी परिणति उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहती। शुभ भावना है। बाह्य निमित्त कुदरती परिणमते हैं। अंतरमें आत्मा परिणमित हुए बिना नहीं रहता। उसका जोर आत्माकी ओर जाता है। शुभ भावना है साथमें, शुभभाव मिश्रित है, परन्तु उसका जोर आत्माकी ओर है।
मुमुक्षुः- शुभभावके साथ उसकी ज्ञान परिणति भी.. समाधानः- ज्ञान परिणति ऐसी जोरदार है कि वह स्वयंका आश्रय लेना चाहती है। जोरदार आश्रय लेना चाहती है।