मुमुक्षुः- माताजी! शुभभावके कालमें परिणतिमें जो होता है, अशुभ-शुभ दोनोंके समय...
समाधानः- भावनाके साथ शुभभाव जुडा होता है। उसके साथ अशुभ नहीं जुडा है। आत्माकी ओर जो दृष्टि गयी, आत्मा चाहिये, उसके साथ शुभभाव है, वह शुभभाव है। अशुभ नहीं है। मुझे शरीर अच्छा मिले, मुझे यह मिले, उसके साथ नहीं होता। आत्माकी परिणतिके साथ शुभभावना जुडी हुयी है, शुभभाव जुडा है। हिंसा करे तो दूर जाता है। कुछ मिलता नहीं। बाह्य लालसाके साथ नहीं जुडा है। बाह्य लालसाके साथ ऐसे जुडा है कि उसके अशुभभावसे जो पाप बँधे उसके योग्य, ऐसे पापके साधन प्राप्त होते हैं। वैसा जो करता है, वैसा ही प्राप्त होता है। ऐसे कुदरत उसके साथ बँधी है। अशुभके योग्य अशुभके अनुकूल जैसे फल आये वैसा उसके साथ बँधा हुआ है।
मुमुक्षुः- व्यापार करनेके कालमें परिणतिमें रुचिका जो जोर होता है, ऊधरसे हटते हैं कि यह मेरा काम नहीं है। उसमें उसके पीछे परिणतिका जोर नहीं होता।
समाधानः- व्यापारके कालमें..?
मुमुक्षुः- वहाँसे हटनेका जो भाव होता है कि यह मेरा काम नहीं है, मैं क्या करता हूँ?
समाधानः- व्यापारमें ऐसा माने कि यह मेरा कार्य नहीं है, मेरा स्वभाव नहीं है। उसका रस टूट गया है। मुझे चैतन्य ही चाहिये। उसका रस टूट गया हो तो.. रस हो तो वह पाप है। रस टूट गया हो तो अल्प भी पाप तो उसे है। जो व्यापारका रस है वह पाप तो है, परन्तु उसका रस टूट गया और शुभभावकी ओर मुडा है कि मुझे चैतन्य चाहिये। चैतन्यकी ओरका जोर उसे चैतन्यका फल देता है। वह जितना है उतना वह संसारका फल देता है। पाप है वह संसारका फल देता है। रस जितना तीव्र उस अनुसार फल आता है। अंतरकी गहरी भावना हो चैतन्यकी ओरकी तो चैतन्यका फल आता है।
वह तो उसे रस टूट गया है। मुझे शुभाशुभ कोई भाव नहीं चाहिये। चैतन्यकी