१०२ भावनावालेको ऐसा होता है कि मुझे बाह्यका कुछ नहीं चाहिये। मात्र आत्मा चाहिये। इन सबमें खडा हूँ, फिर भी मुझे कुछ नहीं चाहिये। चाहिये एक आत्मा। एक आत्माका आश्रय चाहिये और आत्मामें रहना है, बाकी कुछ नहीं चाहिये। ऐसा जोर उसे अंतरमें उत्पन्न होता है। संसारमें बाहर खडा हो तो भी आश्रय पूरा आत्माकी ओर जाता है। दूसरा सब गौण हो जाता है। उसमें जो खडा है वह तो पाप है।
मुमुक्षुः- बाह्य लोक है उससे चैतन्यलोक भिन्न ही है। बाहरमें लोग देखते हैं कि इसने ऐसा किया, वैसा किया, परन्तु अन्दरमें ज्ञान कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं? वह ज्ञानी ही जानते हैं। बाहरसे देखनेवालेको ज्ञानी बाह्य क्रिया करते हुए या विभावमें जुडते दिखायी दे, परन्तु अन्दरमें तो वे कहाँ गहराईमें चैतन्यलोकमें विचरते हैं। यह चैतन्यलोक कैसा है, माताजी?
समाधानः- बाहर दिखता है वह तो विभावका लोक है। अन्दर चैतन्यका लोक तो भिन्न ही है। बाहरमें तो यह सब विभाव परिणाम हुए, उसका जो फल आया वह सब बाह्य लोक तो विभावका है। जिसमें विकल्पमिश्रित सब राग-द्वेष, अंतरमें जो विभाव है, उस विभावके कारण यह बाह्य लोक दिखता है। सब कार्य दिखे, यह सब पुदगल आदि दिखे वह सब जडका लोक है। यह जड पुदगल कुछ जानते नहीं। वह सब जड लोक है। चैतन्यलोक तो अंतरमें भिन्न है।
ज्ञानी कहाँ बसते हैं और कहाँ विचरते हैं, वह बाहरसे दिखायी नहीं देता। बाहरसे द्रव्यचक्षुसे-बाह्य नेत्रसे वह दिखायी नहीं देता। अंतर दृष्टि करे और उसे अंतरमें पहचाने, अंतर वस्तुको पहचाने तो मालूम पडे कि ज्ञानी कहाँ विचरते हैं। चैतन्यलोक तो अंतरमें भिन्न ही है। चैतन्यस्वरूप आत्मा, ज्ञायकस्वरूप आत्मा, उस ज्ञायकमें उसका परिणमन होता है। वह बाहर कोई कार्यमें दिखायी दे, कोई कार्यमें दिखायी दे परन्तु उसकी परिणति अंतरमें चलती है। ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायककी परिणति, क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी परिणति उसे चालू ही है। और स्वानुभूतिमें जाये तो बाह्यमें कहीं उपयोग नहीं है। उपयोग चैतन्यलोकमें जम गया है। चैतन्यलोककी स्वानुभूति करता है। इस दुनियासे तो वह लोक अलग ही है।
अंतरमें उसकी परिणति चलती है, वह परिणति भी बाहरसे भिन्न है। चैतन्यलोक पूरा अलग है। जिसे अनुभूति हो, उसे ख्यालमें आता है कि यह चैतन्यलोक अलग है और यह जड लोक अलग है। वह कोई अपूर्व अदभुत एवं अनुपम है। यह सब विभाव और जड लोक दिखता है, यह सब जो दिखता है वह। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शयुक्त यह सब शरीर और पुदगल, विभाव, राग-द्वेष, आकुलता आदि है। अंतरमें शान्ति और अपूर्वता (है)। उसका ज्ञान अलग, उसका आनन्द अलग, उसके गुण अलग,