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ग्रहण हो सके ऐसा है, बाहरसे उसे कह नहीं सके ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- .. चर्चा हो गयी। द्रव्य न खण्डामी, क्षेत्रे न खण्डामी। सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमें आचार्यदेव अंतमें कहा। काले न खण्डामी, भावे न खण्डामी। सर्वविशुद्ध ज्ञान चैतन्यभाव हूँ। २७१ कलशमें राजमलजीकी टीकामें आता है कि छः द्रव्यको जानना वह भ्रम है। कल पण्डितजीने बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया। छः द्रव्यको जानना वह भ्रम अर्थात...
समाधानः- छः द्रव्यको जाना इसलिये उस ज्ञानसे मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा नहीं। मैं तो स्वयं ज्ञायक हूँ। बाहर छः द्रव्यको जाना इसलिये मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा नहीं। मैं तो स्वयं ज्ञायक ही हूँ। उस ज्ञायक पर दृष्टि करनी है। सुविशुद्ध स्वरूप ज्ञायक। मैं ज्ञायकस्वरूप आत्मा ही हूँ। बाह्य ज्ञेयोंको जाना इसलिये ज्ञायक ऐसा नहीं, मैं तो ज्ञायक ही हूँ। उस ज्ञायकको जान।
किसी भी प्रकारसे मैं तो एक अखण्ड चैतन्यद्रव्य हूँ। किसी भी प्रकारका भेद, अन्दर द्रव्य-गुण-पर्याय सबका गुणभेद, पर्यायभेद, द्रव्य, क्षेण, काल, भाव उन सबके भावसे मैं भिन्न एक अखण्ड द्रव्य हूँ। द्रव्यदृष्टिमें ऐसा किसी भी प्रकारका भेद ... लक्षणभेद है, परन्तु उसमें वस्तुभेद नहीं है। मैं एक चैतन्यद्रव्य हूँ।
मुमुक्षुः- जो व्रत, तप, शील, संयम है तो वह सब क्या हठपूर्वक होते हैं? उससे कुछ लाभ होता है कि नहीं होता है?
समाधानः- लाभ क्या? शुभ परिणाम होवे तो पुण्यबन्ध होता है, दूसरा कुछ नहीं होता है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- व्रत, नियम सब शुभभावरूप है। आत्मा उससे प्रगट हो ऐसा नहीं बनता। आत्माका ध्येय होवे, आत्माकी रुचि होवे, आत्माका ज्ञान करे, आत्माका विचार करे, आत्माको ग्रहण करे तो आत्मा प्रगट होता है। ऐसे आत्मस्वरूपका भान होवे, आत्मा प्रगट नहीं होता। व्रत, नियम, शील, संयम, तप सब किया, उससे आत्मा नहीं प्रगट होता। शुभभावसे पुण्यबन्ध होता है। कषाय मन्द होता है। परन्तु यदि दृष्टि ऐसी है कि यह मुझे लाभकर्ता है, एकत्वबुद्धि है तो कुछ लाभ नहीं होता। पुण्यबन्ध होता है, और कुछ नहीं होता।
कषाय मन्द होता है तो अशुभभावमेंसे शुभभाव होता है। शुभभावसे पुण्यबन्ध होता है। पुण्यबन्धसे देवकी गति होती है। दुर्गति न होकरके मनुष्य और देवकी गति होती है। इतना लाभ होता है। आत्माका लाभ होता है, ऐसा नहीं होता। आत्माकी रुचिके