१०४ बिना आत्माका लाभ नहीं हो सकता। आत्माकी रुचि होवे, आत्माका ध्येय होवे, आत्माकी ओरका विचार होवे, आत्माका निर्णय करे तो आत्माका लाभ होता है। इसमें यदि कषाय मन्द होवे, परन्तु आत्माकी रुचिके बिना लाभ नहीं हो सकता। उसके साथ यदि आत्माकी रुचि न हो तो लाभ नहीं होता।
कषाय मन्द हो, उसे आत्माकी रुचि होवे तो उसको कहीं तीव्र कषाय नहीं होता है, मन्द कषाय (रहता है)। आत्माकी रुचि होवे उसे तीव्र कषायकी रुचि नहीं होती। उसे मन्द कषाय होता है। आत्मार्थीको कषाय मन्द (होता है)। तीव्र कषायमें उसकी रुचि नहीं होती। आत्माकी रुचिके बिना मन्द कषाय पुण्यबन्ध करता है, दूसरा कुछ नहीं करता।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! हम शास्त्र पढते हों, गुरुदेवका प्रवचन सुनते हो, आपके पास भी बातें सुनते हैं। उस वक्त अनेक बार ऐसा कहनेमें आये और स्वाध्यायमें आये कि वह तो सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव है, वह तो कोई सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, ऐसा कहकर निरुत्तर कर दिया जाता है। तो वह वस्तु बल देती है या दूसरा कोई कारण है? उससे हमें बल आये इसलिये कहा जाता है कि ... यह जो है वह सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव है, ऐसा समझ लो। आगे बढनेके लिये ऐसा कहनेमें आता है कि आगे बढनेका प्रयोग है?
समाधानः- किस बातमें कहनेमें आता है, सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव है?
मुमुक्षुः- मनसे काम कर लो तो सब ..
समाधानः- तू परद्रव्यको कुछ नहीं कर सकता। परद्रव्य स्वतंत्र परिणमता है। परद्रव्य कोई एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको कुछ नहीं कर सकता। ऐसा वस्तुका स्वभाव है। निरुत्तर करनेके लिये नहीं है, ऐसा स्वभाव बताते हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय सब स्वतंत्र है। कोई किसीका कर नहीं सकता। जो स्वयं भाव करे उस अनुसार द्रव्यकर्म बन्धते हैं। उस द्रव्यकर्मका फल स्वतंत्र आता है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। इसलिये तू तेरे स्वयंके परिणाम पलटकर ज्ञायकको पहचान। तू परद्रव्यका कुछ नहीं कर सकता। वह निरुत्तर करनेके लिये नहीं है।
ऐसा वस्तुका स्वभाव है कि कंकरी डाले और मन्त्र हो,.. वह स्वयं होता है। कोई किसीका कुछ कर नहीं सकता, ऐसा कहनेमें आता है। कोई किसीका कर्ता नहीं है, ऐसा वस्तुका स्वभाव ही है। निरुत्तर करनेके लिये नहीं है, वस्तुका स्वभाव दर्शाते हैं।
आत्माका जैसे ज्ञायक स्वभाव है, जाननेका स्वभाव है, उसका आनन्द स्वभाव है और जड कुछ जानता नहीं, ऐसा उसका स्वभाव है। जड किसी भी प्रकारसे चैतन्य