१०६ कोई उसका कर्ता नहीं है। कोई कहे कि, ईश्वर करता है और यह होता है, ऐसा नहीं है। स्वयं वैसी परिणति होती ही है। स्वयं निमित्त होता है। उस प्रकारके नैमित्तिक भाव अनुसार निमित्त होता है। निमित्त स्वयं (होता है)। निमित्त निमित्तमें और उपादान उपादानमें है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है। निरुत्तर करनेके लिये नहीं है। ऐसा स्वभाव ही है। उसका उत्तर नहीं आता, इसलिये स्वभाव है ऐसा कहते हैं, ऐसा नहीं है। उसका स्वभाव ही ऐसा है। ऐसा बताते हैं।
तू स्वतंत्र हो जा। मैं परभावका कर्ता हूँ, मैं इसका कर सकता हूँ, इसका भला कर सकता हूँ, उसका बूरा कर सकता हूँ, ऐसा कर-करके आकुलता कर रहा है। लेकिन कोई किसीका कुछ नहीं कर सकता। उसका तू ज्ञाता हो जा। इसलिये कहनेमें आता है। स्वभाव ही ऐसा है। उसके पुण्य अनुसार होता है, उसके पाप अनुसार होता है। तू तेरे भाव, तेरे शुभभाव एवं अशुभभावका अज्ञान अवस्थामें कर्ता होता है। परद्रव्यको तू कर नहीं सकता, ऐसा कहना चाहते हैं। तू ज्ञाता हो जा। उसमें कर्मका निमित्त है। तू द्रव्यकर्ममें भी कुछ नहीं कर सकता। तेरे भाव अनुसार वह स्वयं होते हैं। ज्ञाता हो जा, ऐसा कहना है।
जैसे वह वस्तु स्वयं है निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, वैसे तू स्वतंत्र है। तेरे भाव अनुसार कर्म परिणमते हैं। ऐसा स्वभाव है। वह स्वभाव जानकर तू ज्ञाता हो जा, कर्ता बननेसे छूट जा, ऐसा कहना है।
मुमुक्षुः- निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, वह सहज है? वह सहज है? समाधानः- निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध सहज है। स्वयं उसमें कुछ नहीं कर सकता।