मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्य अपनी पर्यायको करता है। सम्यग्दर्शन करना चाहते हैं। अपना परिणाम स्वयं बदलता है। हम सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहते हैं तो प्रगट क्यों नहीं होता?
समाधानः- करना चाहते हैं, (लेकिन) परिणति नहीं करता। जैसी परिणति करनी चाहिये वैसी नहीं करता है। उसका मार्ग सहजरूपसे जो करना चाहिये वह नहीं करता है। यथार्थरूपसे नहीं करता है, इसलिये नहीं प्रगट नहीं होता है। करता है इसलिये इसका अर्थ ऐसा नहीं है, कोई वस्तुमें है नहीं, कोई नया जगतका कर्ता है, ऐसा नहीं है। जो वस्तुका स्वभाव है, सम्यग्दर्शन-प्रतीत गुण आत्मामें है, उसकी परिणति प्रगट करके पलट देनी है। वह गुण उसके स्वभावमें नहीं था और जगतमें-विश्वमें कुछ नया किया ऐसा नहीं है।
जो सहज स्वभाव सहज तत्त्व है, जो सहज तत्त्वके गुण है, उन गुणोंकी परिणतिको स्वयं पलटनी है। परिणति स्वयं पलटता नहीं है तो कहाँ-से पलटे? उसका कर्तृत्व छूटता नहीं। विभावका कर्तृत्व छूटता नहीं और ज्ञायक (रूप) होता नहीं है, तो ज्ञायककी परिणति और सम्यग्दर्शन कहाँ-से हो? ज्ञाता होता नहीं और कर्तृत्व भी छूटता नहीं, तो सम्यग्दर्शनकी परिमति कैसे प्रगट हो? विकल्पसे, मात्र विकल्पसे प्रगट नहीं होती। भावना आवे, बीचमें भावना आवे। परन्तु उसकी परिणति जो प्रगट करनी चाहिये, जो सहज तत्त्व है उसकी परिणति प्रगट करनी है, उस परिणतिरूप स्वयं परिणमता नहीं है। परिणति तो कर्तृत्वकी खडी है और ज्ञायककी परिणति स्वयं प्रगट नहीं करता है। ज्ञायककी ज्ञायकधारा स्वयं प्रगट नहीं करता है, कहाँ-से हो?
परिणतिरूप जो सहज स्वभाव है, उस रूप परिणमता नहीं। उसका वह (विपरीत) छूटता नहीं है, यह कैसे हो? ज्ञायक प्रगट करे तो वह छूटे और वह छूटे तो ज्ञायक प्रगट होता है। वह छूटता नहीं, यह प्रगट नहीं होता है। इच्छा करे, भावना करे। भावना करनेसे नहीं होता, कार्य करे तो होता है। मैं बँधा हूँ, बँधा हूँ, कैसे छूटुँ? कैसे छूटुँ? कैसे छूटुँ? ऐसा करता रहे तो बन्धन छूटता नहीं। शास्त्रमें आता है। बन्धन तोडनेका कार्य करे तो बन्धन टूटे। बन्धन तोडनेका कार्य करता नहीं है, कैसे टूटे?