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समाधानः- स्थूल बुद्धिवाले जीव हैं, इसलिये समझ नहीं सके ऐसा नहीं है। गुरुदेवने इस पंचम कालमें पधारकर उनका यहाँ अवतार हुआ, बहुत समझाया है। कहीं शंका रहे ऐसा नहीं है। इतना स्पष्ट किया है। प्रत्येक जीवोंको, पूरे हिन्दुस्तानके जीवोंको जागृत किया है। कुछ शंका रहे ऐसा नहीं है। स्थूल बुद्धिमें समझमें नहीं आये ऐसा नहीं है।
मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने तो यह समझमें आये ऐसा है। रागसे भेदज्ञान करे। यह ज्ञायक मैं हूँ और यह राग मैं नहीं हूँ। वह अंतरसे यदि समझे, ज्ञायक स्वभावको-ज्ञानस्वभावको पहचानकर अंतरसे यह जो विभाव है वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ, ऐसे पहचाने तो पहचान सके ऐसा है। उसमें ज्यादा शास्त्र जाने तो पहचाने ऐसा नहीं है।
प्रयोजनभूत तत्त्व गुरुदेवने कहा है कि तू ज्ञायक आत्मा है और यह शुभाशुभ भाव तेरा स्वरूप नहीं है। उससे तू भिन्न हो जा। उससे भिन्न होनेसे अन्दरसे भेदज्ञान होता है। इस कालमें भेदज्ञान न हो सके ऐसा नहीं है। क्योंकि इस कालमें धर्म हो नहीं सकता, ऐसा नहीं है। सम्यग्दर्शन हो सकता है। शास्त्रमें आता है कि जितना यह ज्ञानस्वभाव है उतना ही तू है। तुझे आत्माको पहचानना हो तो गुरुदेवने भी कहा है कि जितना यह ज्ञानस्वभाव है, उतना तू है। जितना यह परमार्थ स्वरूप आत्मा है कि जितना यह ज्ञान है। इस ज्ञानस्वरूप आत्माको तू पहचान।
ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसीमें तू रुचि कर और प्रीति कर। वह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही सत्य परमार्थस्वरूप आत्मा है। उसे तू पहचान ले। कल्याणस्वरूप ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसमें ही सब भरा है। वह महिमावंत है। ज्ञान यानी सिर्फ जानना (इतना ही नहीं है), वह महिमासे भरा आत्मा है। ज्ञायक अर्थात चैतन्यदेव है, उसे तू पहचान। उसीमें तू रुचि कर, उसे जानकर उसमें संतुष्ट हो और उसीमें तू तृप्त हो। ज्ञानस्वरूप आत्मा इस कालमें पहचान सके ऐसा है। यह विभाव मेरा स्वरूप नहीं है, वह तो आकुलता है। ज्ञानस्वरूप आत्मामें ही शान्ति और संतोष है। उसे तू पहचान। पहचाना जाय ऐसा है। इस कालमें पहचान नहीं सके ऐसा नहीं है। परन्तु अंतरसे लगनी लगे, उतनी जिज्ञासा जागृत हो तो पहचाना जाय।
स्थूल बुद्धि है, परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वको (जान सकता है)। स्वयं ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयंके पास है, कहीं खोजने जाना पडे ऐसा नहीं है। उसे गहराईमें ऊतरकर, ज्ञान है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। उसमें यदि तुझे संतुष्टता हो और महिमा आये तो वह पहचाना जाय ऐसा है। (परसे) भिन्न हो तो उसमेंसे तुझे संतोष होकर उसमें ही तुझे तृप्ति होगी। करने जैसा वह एक ही है।