एवं श्रुतज्ञानका उपयोग द्रव्य-गुण-पर्यायमें रुकता हो तो उसे भी स्वयमें स्थिर करे। उस प्रकारका आश्चर्य भी तोड देता है जाननेके लिये कि यह गुण क्या है, यह पर्याय क्या है या यह द्रव्य क्या है? ऐसे जो विचार रागमिश्रित है, उसमें अटकता हो, दूसरे विकल्पको तो गौण कर दिया, लेकिन ऐसे अटकता हो कि यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है, अथवा यह द्रव्य कैसा है, यह गुण कैसे हैं, यह पर्याय कैसी है? उसमें विचार अटकते हो और भेद पडते हो, उन सबका आश्चर्य तोडकर, उस क्षण वह सब जाननेके भेदको तोडकर अंतरमें उपयोगको स्थिर करे कि मैं तो जो हूँ सो हूँ।
मैं चैतन्यदेव हूँ, इस प्रकार उपयोगको स्वयंमें स्थिर करे तो उसे गुण-गुणीका भेद गौण होकर विकल्प छूटकर निर्विक्लप दशा होती है। गुण-गुणी भेद परसे दृष्टि छूटकर आत्मामें स्थिर हो तो उसे निर्विकल्प दशा होती है और अंतरमेंसे उसे ज्ञायकदेव प्रगट होते हैं। अंतरमेंसे ऐसा छूट जाता है कि बस, एक ज्ञायक मात्र ज्ञायक, अनन्त गुणसे भरा ज्ञायक, ऐसी निर्विकल्प दशा तो उसे प्रगट होती है।
एक आत्माका अस्तित्व ग्रहण करे तो ही यह होता है। सिर्फ यह छोडा, फिर यह छोडा, ऐसे आत्माको-ज्ञायकको ग्रहण किये बिना, मैंने सब छोडकर सब भेद छोड दिये, परन्तु आत्माको ग्रहण किये बिना, अभेद पर दृष्टि किये बिना, ज्ञायक पर दृष्टि किये बिना, ज्ञायकको ग्रहण किये बिना किसी भी प्रकारका भेद छूटता नहीं। ऐसी एकाग्रता करे परन्तु यदि ज्ञायक ग्रहण नहीं हुआ हो तो वैसा ध्यान करे तो विकल्प छूटते नहीं। लेकिन आत्माको पहचानकर, ज्ञायकको पहचानकर, उसका अस्तित्व ग्रहण करके फिर उसमें स्थिर हो जाय तो उसके विकल्प छूट जाते हैं।
गुरुदेवने यह मार्ग स्पष्ट करके स्वानुभूतिका मार्ग बताया है और उसी मार्गसे कल्याण होता है और यही मार्ग है, मुक्तिका उपाय है। वही एक सुखका उपाय है। सत्य यही है। उसमें कोई नय नहीं रहते हैं। कोई नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, शास्त्रमें आता है। निक्षेप कहाँ चला जाता है, प्रमाण अस्त हो जाता है, वह सब प्रकारका आश्चर्य उसे छूट जाता है। जाननेका कुतूहल छोडकर अंतरमें स्थिर हो जाता है। परन्तु उसकी अंतर्मुहूर्तकी स्थिति है। फिर बाहर आता है तो सविकल्प दशामें उसके विचार आते हैं। क्योंकि पूर्ण वीतराग नहीं हुआ है। सविकल्प दशामें भेदज्ञानकी धारा रहती है, उसके साथ क्षण-क्षणमें ज्ञायककी धारा रहे, उसके साथ यह विकल्प होते हैं। शुभभाव होता है, श्रुतका चिंतवन होता है, पंच परमेष्ठीकी भक्ति, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब विचार होते हैं। परन्तु उससे भिन्न ही रहता है। परन्तु निर्विकल्पताके समय यह सब छूट जाता है और गौण हो जाता है।