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यह मार्ग गुरुदेवने बताया है और उसी मार्गकी जिज्ञासा, लगनी लगाये तो यह हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- ॐ वीतरागाय नमः। परम पूज्य श्री गुरुदेवको कोटि-कोटि वन्दन। प्रशममूर्ति सम्यक रत्नत्रयधारी पूज्य भगवती माताको कोटि-कोटि वन्धन! प्रश्न है-शुद्धनयका विषय अशुभ होने पर भी वह परिपूर्ण है? आत्मामें एक अंश परिपूर्ण होकर रहता हो तो दूसरे अंशको शून्य होना पडे। तो यह बात कृपा करके समझाइये।
समाधानः- गुरुदवने सब स्पष्ट करके द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप बहुत समझाया है। द्रव्यका एक अंश परिपूर्ण होकर रहता है, लेकिन वह शाश्वत अंश है। द्रव्य स्वयं शाश्वत है और पर्याय है वह पलटता अंश है। पलटते अंश पर दृष्टि नहीं होती, परन्तु जो शाश्वत अंश है, द्रव्यका जो शाश्वत भाग है उस पर दृष्टि उसका विषय करती है। और वह परिपूर्ण अर्थात शक्तिसे परिपूर्ण है। प्रगटरूपसे परिपूर्ण नहीं है, शक्तिमें परिपूर्ण है। इसलिये शक्तिसे परिपूर्ण होनेसे उसमें विरोध नहीं आता है। एक पलटता अंश है और एक शाश्वत अंश है। शाश्वत अंश द्रव्य स्वयं है। और पर्याय है वह द्रव्यदृष्टिमें गौण होती है, इसलिये उसमें विरोध नहीं आता है। द्रव्यदृष्टि उसे विषय करती है और ज्ञानमें वह सब जाननेमें आता है।
ज्ञानमें द्रव्य-गुण-पर्याय आदि सब ज्ञानमें ज्ञात होता है। परिपूर्ण अर्थात वह शक्तिरूप परिपूर्ण है। यदि प्रगट परिपूर्ण हो तो उसमें विरोध आता है। प्रगटरूपसे परिपूर्ण नहीं है, शक्तिरूपसे परिपूर्ण है। और वह शाश्वत है इसलिये दृष्टि उसे विषय करती है और शाश्वत अंश पर ही जोर देकर वह आगे बढती है। जो शाश्वत हो उस पर दृष्टि स्थिर होती है। पलटते (अंश) पर दृष्टि स्थिर नहीं होती। दृष्टि पर्यायको गौण करती है और ज्ञानमें वह सब ज्ञात होता है। इसलिये दूसरे अंशको शून्य नहीं होना पडता। वह तो द्रव्यका स्वरूप जो है वह है। द्रव्य-गुण-पर्याय।
द्रव्यदृष्टि उसे विषय करती है। इसलिये वह शक्तिरूपसे परिपूर्ण है। उसमें कोई विरोध नहीं है। उसमें उसे शून्य नहीं होना पडता। दृष्टिका विषय है, श्रद्धा बराबर करती है। जो शाश्वत है उसीके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है। उसे शून्य नहीं होना पडता, बल्कि पर्याय-निर्मल पर्यायें प्रगट होती है। उसका आश्रय लेनेसे निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैं। एक श्रद्धा परिपूर्ण द्रव्यको विषय करती है। वह द्रव्यदृष्टि पर्यायको गौण करती है। उसके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है।
जैसे श्रद्धा हो तो भी चारित्र बाकी रहता है, उसमें कोई विरोध नहीं आता है। पहले श्रद्धा परिपूर्ण होती है। द्रव्यदृष्टि परिपूर्ण होती है और चारित्र बाकी रहता है। ऐसा क्रम पडता है। इसलिये उसमें कोई विरोध नहीं आता है। द्रव्यदृष्टिके बलसे आगे