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स्वरूप ही ऐसा है।
.. परिपूर्ण हो गया, श्रद्धा हुयी इसलिये सब परिपूर्ण हो जाय, ऐसा नहीं है। उसमें कोई विरोध नहीं है। ऐसे द्रव्य परिपूर्ण शक्तिरूप है और वह पर्याय पलटता अंश है, उसमें कोई विरोध नहीं है। वह तो वस्तुका स्वरूप ही है। द्रव्यदृष्टिके बलसे आगे बढा जाता है। उसमें चारित्र-लीनता अभी बाकी रहती है। सम्यग्दृष्टि ज्ञाताधाराकी उग्रता करते-करते आगे बढता है। उसमें जब चारित्रकी लीनता होती है तब भूमिका पलटती है और छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान प्रगट होता है। वह सब द्रव्यदृष्टिके बलसे पर्यायें, निर्मल पर्यायें प्रगट होती जाती है। उसमें शून्य नहीं होती, अपितु प्रगट होती है। उसमें उसे शून्य नहीं होना पडता। उसके आश्रयसे केवलज्ञान होता है। सब द्रव्यदृष्टिज्ञके बलसे (प्रगट होता है)। जो शाश्वत अंश है, उसका आश्रय लेनेसे पर्यायें प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- पर्यायमें परिपूर्णता प्रगट होने पर भी शक्तिमें कुछ भी हानि-हानि वृद्धि नहीं होती।
समाधानः- शक्तिमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती। पर्यायमें पूर्ण हो गया, केवलज्ञान होता है तो उसमें शक्तिमें हानी नहीं होती। और विषय परिपूर्ण.. द्रव्यदृष्टिने विषय किया कि मैं पूर्ण हूँ, तो उसमें शक्तिमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती। शक्ति तो, जो उसने श्रद्धा की, द्रव्यदृष्टि की तो उसे शक्तिमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती। वस्तु तो जैसी है वैसी है। उसने उस पर श्रद्धा कि यह मैं शाश्वत द्रव्य हूँ। यह जो विभाव आदि पर्याय होती है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसी उसने श्रद्धा की, ऐसा ज्ञान किया, आंशिक लीनता की इसलिये उसमें उसकी शक्तिमें हानि-वृद्धि नहीं होती। वह तो जैसी है वैसी है। अनादिअनन्त शाश्वत जो वस्तु है वैसी है। परिपूर्ण है। उसमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती।
मुमुक्षुः- पर्यायकी परिपूर्णता कहाँ-से आती है?
समाधानः- परिपूर्णता आती है, द्रव्यका आश्रयसे आती है। लेकिन वह तो पर्यायकी परिपूर्णता है। द्रव्य तो अनन्त पडा ही है। पर्यायमें परिपूर्णता होती है। जैसा स्वभाव हो, वैसी पर्याय प्रगट होती है। पर्याय तो पलटती रहती है और द्रव्य तो शाश्वत है।
मुमुक्षुः- पदार्थमें ऐसे दो भिन्न-भिन्न अंश है? एक वैसाका वैसा रहे और एकमें फेरफार होता रहे?
समाधानः- दोनो भिन्न अंश (हैं)। हाँ, एकका स्वभाव भिन्न है कि जो शाश्वत है। द्रव्य शाश्वत है और पर्याय पलटती रहती है। ऐसे दो भाग यानी बिलकुल दो भिन्न-भिन्न भाग नहीं है। वह द्रव्यका ही स्वरूप है। द्रव्य-गुण-पर्याय द्रव्यका ही स्वरूप