११८ है। उसके स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। एक शाश्वत रहनेवाला है और एक पलटता है। ऐसे अनन्त गुण-पर्यायसे भरा आत्माका स्वरूप है। एक स्वरूप नहीं है। एक स्वरूप हो तो श्रद्धा हो तो साथमें सब हो जाना चाहिये। श्रद्धाके साथ चारित्र, केवलज्ञान आदि सब श्रद्धाके साथ (हो जाना चाहिये)। सब एक ही जातका एक ही हो तो। अनन्त गुणसे भरा आत्मा है, अनन्त। पर्यायकी शुद्धि बाकी रह जाती है।
मुमुक्षुः- एक ही समयमें पूरा द्रव्य शुद्ध है और पूरेमें अशुद्धिका भाव है, ऐसा है?
समाधानः- एक ही समयमें अशुद्धि पूरे द्रव्यमें (नहीं है)। द्रव्यदृष्टिमें पूरेमें अशुद्धता नहीं आयी है। पर्यायदृष्टिसे है। पर्यायदृष्टिसे शुद्ध भी द्रव्यमें जो है, वस्तु जो तलमें पडी है, वह सब आकर पर्यायरूप हो गया और बादमें कुछ नहीं रहा, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- अक्षय भण्डार है।
समाधानः- हाँ, अक्षय भण्डार है, उसमेंसे कुछ कम नहीं होता। उसमें सब भरा ही है। उसमेंसे कम नहीं होता है। पर्याय चाहे जितनी पलटती ही रहे, उसमेंसे आती ही रहे तो भी कम नहीं होता है। भण्डार भरा है। अनन्त आनन्द प्रगट हो केवलज्ञानमें तो अनन्त काल पर्यंत परिणमता रहे तो भी उसमें कम नहीं होता। लोकालोकका ज्ञान एक समयमें हो, लोकालोकको जानता है तो भी दूसरे समय लोकालोकको जाननेवाली पर्याय परिणमती ही रहती है। सब जान लिया इसलिये उसकी पर्याय पूरी हो गयी तो दूसरे समय क्या आयेगा, ऐसा नहीं है। परिणमन होता ही रहता है, पलटता ही रहता है। उसमेंसे कम नहीं होता है, भण्डार भरा है।
मुमुक्षुः- भण्डार निरावरण है कि उसे कुछ आवरण है?
समाधानः- निरावरण है, किसी भी प्रकारका आवरण नहीं है। अनादिसे है उसमें भी आवरण नहीं है तो प्रगटमें तो कहाँ आवरण है? शक्तिरूपमें आवरण नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे आवरण नहीं है, पर्याय अपेक्षासे है।
मुमुक्षुः- शक्ति जिसे कहते हैं वह निरावरण ही है?
समाधानः- निरावरण है। निरावरण अखण्ड एक वस्तु है, कोई आवरण नहीं है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनमें उसके दर्शन होते होंगे?
समाधानः- सम्यग्दर्शनमें उसकी पर्यायका वेदन होता है। द्रव्य पर दृष्टि है, पर्यायका वेदन होता है। अनन्त गुणका भण्डार आत्मा, उसकी निर्मल पर्यायोंका वेदन होता है, उसका दर्शन होता है। चैतन्यदेवके दर्शन होते हैं।