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मुमुक्षुः- हे भगवती माता! पर्यायको अन्दरमें झुका, गुण-गुणीके भेदको तिरोधान करनेका जो उपदेश है, उसमें अंतरमें झुकाना मतलब क्या? और भेदको तिरोधन करनेका अर्थ क्या है? यह कृपा करके समझाइये।
समाधानः- ज्ञायक स्वभावकी प्रतीति दृढ करनी कि मैं यह एक ज्ञायक ही हूँ। यह दूसरा जो स्वरूप है वह मेरा नहीं है। यह शरीर सो मैं नहीं हूँ। यह विभाव मैं नहीं हूँ, वह सब आकुलतारूप है। उससे भिन्न मैं एक ज्ञायक हूँ। उसमें उसे गुण- गुणीका भेद उत्पन्न हो कि यह दर्शन सो मैं, यह ज्ञान सो मैं, यह चारित्र सो मैं, ऐसे एक-एक गुणस्वरूप आत्मा नहीं है, आत्मा तो अखण्ड ज्ञायक है। दर्शनगुण और चारित्र पर उसकी दृष्टि जाती है तो वह गुणभेद है। गुणभेद वास्तविकरूपसे आत्मामें नहीं है। गुणभेद तो एक लक्षणभेद है। एक द्रव्य पर दृष्टि करे और भेदको गौण करे तो ही उसे सच्ची यथार्थ प्रतीति है और तो ही उसे निर्विकल्प दशा होती है।
इसलिये यथार्थ प्रतीति करके उपयोग जो बाहर जाता है, गुण-गुणी भेदमें रुके या चाहे कहीं भी रुके, उस उपयोगको स्वरूपमें झुकाकर स्वरूपमें स्थिर करे। बाह्य ज्ञेयोंको जानने जाये अथवा रागमें अटकता हो, गुण-गुणीके भेदमें अटकता हो, उस उपयोगको स्वयंमें स्थिर करे कि यह चैतन्य है वही मैं हूँ। उसमें कोई भेद पर दृष्टि (नहीं करे)। उसमें लक्षणभेद है, लेकिन वह लक्षणभेद कोई वास्तविक भेद नहीं है। गुणभेद पर दृष्टि करनेसे विकल्प उत्पन्न होता है। इसलिये आत्मामें स्थिर होकर, आत्मामें विश्राम लेकर वह विकल्पसे छूटता है। आत्मा उस भेदको गौण कर देता है। विकल्प जब छूटे तब उपयोग स्वरूपमें स्थिर हो जाय।
लेकिन जिसने आत्माका अस्तित्व ग्रहण किया हो, उसे ही वह विकल्प छूटता है। दूसरे प्रकारसे विकल्प छूटते नहीं। कोई ध्यान करे आत्माको समझे बिना या आत्माको पहचाने बिना, अकेली एकाग्रता करे, आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिना एकाग्रता करता रहे तो ऐसे ध्यानसे विकल्प छूटता नहीं। ध्यान तो आत्माको पहचानकर, यथार्थपने पहचानकर आत्मामें एकाग्र हो, ज्ञायकको पहचानकर। उसमें गुण-गुणी भेद पर दृष्टि जाती हो तो उसे भी गौण करके जो उपयोग बाहर जाता है, मतिज्ञानका उपयोग