०११
है। देवोंका आयुष्य पूरा हो जाता है तो मनुष्यका आयुष्य किस हिसाबमें है? मनुष्यका जीवन तो सौ-पचास सालका आयुष्य का क्या हिसाब है? जन्म-मरण चलते ही रहते हैं।
ऐसा संसार देखकर बडे-बडे राजा और तीर्थंकर, संसार छोडकर मुनि हो जाते थे। वह संसार तो ऐसा ही है। एक पानीके बिन्दु समान, जैसे ओसका बिन्दु सुबह दिखाई दे और तुरन्त विलिन हो जाते हैं। बिजलीके चमकारे जैसा मनुष्यजीवन है। उसमें आत्माका कर लेने जैसा है। बाकी संसार तो ऐसा ही है। तीर्थंकर भी मुनि बनकर नीकल जाते थे। वर्तमानमें ऐसी दशा नहीं हो सके तो स्वयं अन्दर आत्मा कैसे प्राप्त हो? सम्यग्दर्शन कैसे हो? स्वानुभूति कैसे हो? वब करने (जैसा है)। संसार तो ऐसा ही है। विचारकर, सब पलटकर शांति रखने जैसी है। राग होता है उतना दुःख होता है, परन्तु सब पलटने जैसा है। संसार तो ऐसा ही है।
.. संसारमें कोई उसका साथी नहीं होता। स्वयंके किये हुए कर्म स्वयं अकेला ही भोगता है। जो पुण्य-पाप कर्म बान्धे वह अकेला भोगता है, अकेला मोक्ष जाता है और संसारमें अकेला रखडता है, उसका कोई साथीदार नहीं होता। इसलिये स्वयं ही स्वयंका कर लेना। ऐसा यह संसार है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया, वही करने जैसा यह एक ही है।
अन्दर शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? वह करने जैसा है। आयुष्य पूर्ण होता है तो एक क्षणमें। चतुर्थकालमें भी आयुष्य पूरे होते थे। चक्रवर्तीओंके, राजाओंके, सबके आयुष्य पूर्ण होते थे।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।