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उससे पुण्य बन्धता है। स्वयंने उसने उतना राग छोडा, खाना-पीना ... आत्माका स्वभाव, यही आत्माका स्वरूप है। आत्मा खाता-पीता नहीं। उसने त्याग किया, ठीक है, शुभभावसे पुण्य बन्धता है। लेकिन ...
एक मनुष्यको कहीं जाना हो तो किस रास्तेसे जाना है, उस मार्गको जानना चाहिये। यहाँसे भावनगर जाना हो तो उस रास्ते पर मार्गको जानकर चले तो वहाँ पहुँचता है। उलटे रास्ते पर चले, दूसरे रास्ते पर जाये तो दूसरे गाँव पहुँचता है। मार्ग जाने। मार्ग जाने बिना ऐसी ही धूपमें तप्त हो जाये तो मार्ग हाथ नहीं लगता, मार्गको जानना चाहिये। जाने तो आगे बढे। उसे जानना तो चाहिये कि मैं कहाँ जाऊँ? आत्मा क्या है? क्या स्वरूप है? क्या मोक्ष है? सुख कहाँ है? दुःख क्यों है? किस कारणसे है? उसके कारण खोजे। आत्माका सुख कैसे प्रगट हो? वह जाने। जानकर अन्दर निरसता आ जाये। संसारमां उसे रस नहीं होता। अन्दरसे रस एकदम छूट जाये और उदासीनता आ जाये। उदासीनता आये परन्तु वह जाने के इस रास्ते पर जानेसे-आत्माको पहचाननेसे (आगे बढा जायेगा)। निरस हो जाये, आत्मामें लीन हो जाये। आत्माको पहचानकर अन्दर लीन हो, तो मार्ग मिलता है। मात्र भागता रहे तो वह शुभभाव है, पुण्यबन्ध होता है।
मुमुक्षुः- किसके द्वारा यह सब प्राप्त हो सकता है?
समाधानः- जो जानता हो (उनसे)। भगवानने जो मार्ग दर्शाया, भगवानने क्या कहा है उसे जाने और आचार्य क्या कहते हैं, मुनिओने क्या कहा है, गुुरु क्या कहते हैं, उनके द्वारा मार्ग मिले। परन्तु स्वयं तैयार हो तो मार्ग मिले। गुरुके मार्ग पर चले। सत्संगसे समझमें आता है। साक्षात गुरु मिले, साक्षात आचार्य, मुनि कोई मिले (तो) उनसे मार्ग मिलता है। अनादिका अनजाना मार्ग समझे बिना स्वयं ऐसे ही करे तो ऐसा तो उसने अनेक बार किया है। त्याग किया, सब किया, लेकिन पुण्यबन्ध हुआ। उससे देव हुआ, परन्तु भवका अभाव नहीं हुआ। पुण्य बान्धे तो देवका भव मिले, अच्छे भाव रखे तो देवका भव मिले। यदि भाव अच्छे नहीं हो, मात्र आहार छोडकर भाव यदि बराबर नहीं हो तो पुण्यबन्ध नहीं होता है। परन्तु भाव अच्छे हो तो पुण्यबन्ध