१२० भी सुख नहीं लगता है। वह तो गृहस्थाश्रम है।
मुनिओं अंतरमें तो अकर्ता हैं ही और चारित्रकी अपेक्षासे भी उन्हें बाहरका सब छूट गया है। शास्त्रमें आता है कि मुनिओं अशरण नहीं हैं। बाहरके पंच महाव्रतके परिणाम जो शुभ हैं, उससे भी उनकी परिणति भिन्न रहती है। मुनिओंकी ज्ञाताधारा, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए क्षण-क्षणमें स्वरूपमें लीन हो जाते हैं, स्वानुभूतिकी दशामें। मुनिओं अशरण नहीं हैं, उन्हें आत्माका शरण है। मुनिओंका पूरा दिन कैसे व्यतीत होता होगा, वह कोई (सवाल) नहीं है। वे तो आत्मामें लीन रहते हैं।
वैसे सम्यग्दृष्टिको तो बाहर कोई कार्य हो तो भी अंतरका कार्य-अन्दर ज्ञाताकी धारा चालू है। क्षण-क्षणमें जो यह विभावकी परिणति हो रही है, उससे क्षण-क्षणमें उसकी परिणति भिन्न चलती ही रहती है। वह अशरण नहीं है। आत्माका शरण लिया है, आत्मामें ही सुख, शान्ति और स्वानुभूतिका कार्य चलता है। आत्माकी निर्मलता विशेष कैसे प्रगट हो, उसकी सहज दशा और उसकी पुरुषार्थकी विशेष डोर चलती रहती है।
सिद्ध भगवानको सब छूट गया इसलिये सिद्ध भगवान दिन-रात क्या करते होंगे, उसका सवाल नहीं है। सिद्ध भगवानकी अनन्त गुण-पर्यायें हैं। वे अनन्त गुण-पर्यायोंमें परिणमन करते रहते हैं। उन्हें कर्ता, क्रिया और कर्म सब अंतरमें प्रगट हुआ है और वह सहज है, आकुलतारूप नहीं है। आत्माका एकदम निवृत्त स्वभाव है और तो भी उसमें कर्ता, क्रिया और कर्म सिद्ध भगवानके जो गुण हैं, उन गुणोंका कार्य चलता रहता है। ज्ञान ज्ञानका कार्य करता है, आनन्द आनन्दका। ऐसे अनन्त गुण अनन्त गुणोंका कार्य करते हैं। तो भी उनकी परिणति निवृत्तमय है।
सिद्ध भगवान पूरा दिन क्या करते होंगे? आत्मामें लीन रहते हैं। अदभुत अनुपम दशामें रहते हैं। उसमें संतुष्ट हैं। उसमें तृप्ति है। उसमें उन्हें आनन्द है, बाहर जानेका मन भी नहीं होता है।
वैसे सम्यग्दृष्टिको अभी तो अधूरी दशा है। भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। उसे ऐसा नहीं होता है कि मैं ज्ञाता हो गया, अब दिन कैसे व्यतीत होगा? वह उसमें संतुष्ट है। उसमें उसे तृप्ति है। उसे कहीं बाहर जानेका मन नहीं होता है। कोई कार्यमें जुडनेका मन-कर्ताबुद्धिसे कहीं जुडनेका मन उसे नहीं होता है। उसे आत्मामें संतोष है, आत्मामें तृप्ति है, आत्मामें शान्ति है। उसे बाहर कहीं जानेका, अंतरसे स्वामीत्व बुद्धिसे जानेकी इच्छा नहीं होती है। अस्थिरतासे जाता है तो जाना होता है।
बाकी मुनिओंको सब छूट गया है। मुनिओंको निवृत्तमय परिणति विशेष है। उसमें वे थकते नहीं और बाहर जानेका मन नहीं होता। मैं आत्मामें कैसे स्थिर हो जाऊँ?