ट्रेक-
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यह स्वानुभूतिकी दशासे क्षण-क्षणमें बाहर आना पडता है, उसके बजाय अंतरमें शाश्वत
कैसे रह जाऊँ? मुनिओंको ऐसी भावना होती है। उसमें ही उन्हें तृप्ति और आनन्द
है। क्षण-क्षणमें बाहर जाना हो जाता है, तो बाहर कैसे न जाना हो, ऐसी उन्हें भावना
रहती है। बाहर जाना भी रुचता नहीं है। आत्माका स्थान छोडकर, आत्माका जो
अनन्त आनन्दका धाम और अनन्त सुखका धाम, आत्माका बाग छोडकर कहीं बाहर
जानेका मन नहीं होता है। उनका पूरा समय आत्मामें ही व्यतीत होता है।
कैसे रह जाऊँ? मुनिओंको ऐसी भावना होती है। उसमें ही उन्हें तृप्ति और आनन्द
है। क्षण-क्षणमें बाहर जाना हो जाता है, तो बाहर कैसे न जाना हो, ऐसी उन्हें भावना
रहती है। बाहर जाना भी रुचता नहीं है। आत्माका स्थान छोडकर, आत्माका जो
अनन्त आनन्दका धाम और अनन्त सुखका धाम, आत्माका बाग छोडकर कहीं बाहर
जानेका मन नहीं होता है। उनका पूरा समय आत्मामें ही व्यतीत होता है।
सम्यग्दृष्टिको तो ज्ञायककी धारा प्रगट है और उसे पुरुषार्थकी डोर चालू है। उनका समय कैसे व्यतीत होता होगा, ऐसा उसे सवाल नहीं है, ऐसा उसे होता ही नहीं। इसी मार्गसे अनन्त जीव, अनन्त साधक इसी प्रकारसे मोक्षको प्राप्त हुए हैं। कहीं बाहर जानेका मन नहीं होता है।
बाहरकी प्रवृत्ति तो एक उपाधि और बोजा है। वह कोई आत्माका स्वभाव नहीं है। वह तो उसने कर्ताबुद्धि मानी है इसलिये अस्थिरताके कारण उसने आत्माका स्थान ग्रहण नहीं किया है। स्वघर देखा नहीं है इसलिये बाह्यघरमें अनादिसे घूमता है। आत्माका एक मूल स्थान हाथ लग जाय तो उसे कहीं अन्य घरमें जानेका मन नहीं होता है। अस्थिरताके कारण जाता है।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!