Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 90.

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 555 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

१२२

ट्रेक-९० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अस्थिरता अपेक्षासे परमें जुडे तब भी उसे रुचता नहीं होगा।

समाधानः- उसे अंतरमें रुचि नहीं है। यह पुरुषार्थकी मन्दताके कारण बार जाना हो रहा है। अंतरमें पूर्णरूपसे स्थिर नहीं हुआ जाता। अंतरमें बाहर आना हो जाता है। अंतर्मुखकी दशामेंसे, अंतर्मुखकी स्थितिमेंसे बाहर आना होता है और सविकल्प दशामें आना होता है, वह रुचता नहीं है। फिर भी पुरुषार्थकी मन्दताके कारण आना हो जाता है और उसमें गृहस्थाश्रममें बाह्य कायामें जुडता है।

प्रत्येक कार्य, शुभाशुभ प्रत्येक कायामें जुडे लेकिन उसकी रुचि तो आत्मामें जानेकी रहती है। मेरी ज्ञायककी धारा विशेष कैसे प्रगट हो? विशेष लीनता कैसे हो? ऐसी उसे भावना रहती है। ऐसी अनुपम दशा, ऐसा अनुपम चैतन्यदेव जो हाथमें आया उसे छोडकर बाहर जानेका मन नहीं होता है। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दताके कारण बाहर जाना होता है।

समाधानः- ... ऐसी एकत्वबुद्धि निरंतर रहती है। दिन और रात एकत्वबुद्धिकी परिणति चलती है। विचार करे कि मैं जुदा हूँ-भिन्न हूँ, परन्तु परिणति तो एकत्वकी चलती है। जैसी एकत्वकी परिणति चलती है, वैसी परिणति "मैं ज्ञायक हूँ' ऐसा अभ्यास बारंबार करे। जैसी वह परिणति निरंतर (चलती है), जीवनमें ऐसी एकत्वबुद्धि हो रही है। अनादि कालसे हो रही है। मैं ज्ञायक हूँ, (ऐसा) एक-दो बार विचार करे ऐसा नहीं, जीवनमें ऐसा ही दृढ करे कि मैं ज्ञायक ही हूँ। ऐसी भले भावना, विचार करे परन्तु एकत्वबुद्धि तोडनेकी परिणति होनी चाहिये।

मैं ज्ञायक ही हूँ, मैं यह नहीं हूँ, क्षण-क्षणमें उसका विचार आये। मात्र विचार ऊपर-ऊपरसे नहीं, अंतरसे ज्ञायककी लगनीपूर्वक (होना चाहिये)। अन्दर जिज्ञासा ... हो और बारंबार मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा भीतरमेंसे होना चाहिये। बारंबार। यथार्थ सहज परिणति तो जब निर्विकल्प दशा होती है, उसके बाद सहज होती है। परन्तु पहले उसका बारंबार अभ्यास करे। मैं ज्ञायके ही हूँ, क्षण-क्षणमें उसका अभ्यास करना चाहिये। बारंबार।

बुद्धिसे जान लिया कि यह शरीर भिन्न, मैं भिन्न, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं।