परन्तु उसके प्रयत्नमें ऐसा होना चाहिये कि मैं भिन्न ही हूँ। बारंबार जब-जब विकल्प आवे तब मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसा भीतरमेंसे होना चाहिये। ऐसा अभ्यास होना चाहिये।
मुमुक्षुः- पहले देह सम्बन्धि भिन्नताका प्रयास विशेष चलेगा?
समाधानः- ऐसा क्रम आता है। प्रथम देह, स्थूल देहसे मैं भिन्न हूँ। सूक्ष्म विभावसे भिन्न, शुभसे भिन्न ऐसा आता है, ऐसा क्रम आता है। क्रम आता है, परन्तु जब यथार्थतासे भिन्न होवे तब सब एकसाथ हो जाता है। यह स्थूल शरीर तो मैं नहीं हूँ, मैं तो ज्ञायक हूँ। लेकिन भीतरमें विभाव आवे वह भी मैं नहीं हूँ, वह मेरा स्वभाव नहीं है।
फिर शुभभाव। शुभाशुभ और शुभभाव। उसमें द्रव्य-गुण-पर्यायका विचार आवे तो भी वह तो विकल्प रागमिश्रित है। उससे भी मैं भिन्न हूँ। ऐसा क्रम-क्रमसे (होता है)। परन्तु क्रम आवे वह व्यवहार है। भीतरमें तो जब यथार्थतासे भिन्न पडता है, तब सब एकसाथ हो जाता है। यथार्थ भिन्नता आवे तब एकसाथ (हो जाता है)। स्थूल शरीरसे, विभावसे, सुबुद्धिका विलास है, सबसे एकसाथ भिन्न हो जाता है। पहले अभ्यास क्रममें ऐसा आता है। स्थूल शरीरसे भिन्न, विभावसे भिन्न, शुभभावसे भिन्न। द्रव्य-गुण-पर्यायका रागमिश्रित विचार बीचमें आता है। परन्तु वह सब तो रागमिश्रित विचार है। ऐसा मेरा स्वभाव (नहीं है)।
शरीरमें जब कुछ होवे तो मैं तो आत्मा ही हूँ, मैं तो भिन्न हूँ। यह स्थूल शरीर मेरा नहीं है। वह तो पुदगल जड है। ऐसे एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिये। विभावसे एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिये। शुभभाव आवे इससे भी एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिए। सबसे एकत्वबुद्धि तोडनी चाहिये। एकत्वबुद्धि तोडनेके लिये उपयोगको सूक्ष्म करना पडता है। देह तो स्थूल है, मैं सूक्ष्म हूँ। शुभभावसे भी भिन्न उपयोग सूक्ष्म होता है। ऐसी जिसको जिज्ञासा हो तब एकसाथ हो जाता है।
मुमुक्षुः- अन्दर भिन्नताकी परिणति निरंतर चालू रहती है?
समाधानः- हाँ, अभ्यास करनेकी परिणति चालू रहती है। ... ऐसा कोई नियम नहीं है, लेकिन शुभभाव (होता है)। द्रव्य-गुण-पर्यायका विचार (होता है)। कोई कहता है कि आखिरमें कौन-सा विकल्प (होता है)? ऐसा विकल्पका कोई निश्चित नहीं है। ऐसा शुभभाव ज्ञायकके साथ शुभभाव साथमें रहता है। कौन-सा शुभभाव, इसका कोई नियम नहीं है। ज्ञायकके सम्बन्धमें जो अनुकूल होवे उसका विचार (होता है)।
... भेदज्ञान करनेका प्रयास होता है। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। जो सिद्ध हुए सब भेदविज्ञानसे हुए हैं। द्रव्य पर दृष्टि और भेदज्ञानका प्रयास। मैं चैतन्य