१२४ शाश्वत द्रव्य हूँ। ऐसे द्रव्य पर दृष्टि करके, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा भेदज्ञान करनेका प्रयास करना चाहिये। जो नहीं हुए हैं, भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए हैं। जो हुए भेदविज्ञानसे हुए हैं। अनन्त काल गया। अपना स्वभाव सरल है, सुगम है, तो भी दुर्लभ हो गया है।
मुमुक्षुः- दुर्लभ होनेका क्या कारण रहा?
समाधानः- कारण, ऐसी एकत्व परिणतिकी इतनी गाढता हो गयी है। पुरुषार्थ नहीं करता है। प्रमाद हो रहा है। पहले तो यथार्थ समझन नहीं है, अज्ञानता है। ज्ञान सच्चा नहीं है। सच्चा ज्ञान करे, विचार करके नक्की करे तो भी प्रमादके कारण नहीं हो सकता है। मैं भिन्न हूँ, ऐसा नक्की करे। अनादि कालसे कहीं न कहीं रुक जाता है। ऐसे गुरुदेव मिले, सच्चा मार्ग मिला। नक्की करता विचार करके, लेकिन प्रमादके कारण नहीं हो सकता है। अंतर लगनी लगी नहीं है और प्रमाद है। लगनी लगे तो पुरुषार्थ हुए बिना रहता ही नहीं।
मुमुक्षुः- .. उस समय मनमें जितना उल्लास और निर्णयकी जागृति होती है, ुउतना जब आपसे अलग होते हैं उस समय उतना काम नहीं होता। दर्शनसे ही इतना लाभ मिलता है, इसका क्या कारण?
समाधानः- यहाँ आनेसे होता है, फिर कहाँ नहीं होता है? उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध होता है। अपने कारणसे स्वयं... शास्त्रमें आता है न कि सत्संग लाभका कारण होता है। करता है स्वयंसे, पुरुषार्थ स्वयंको करना है, परन्तु सत्संगके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। सत्संग करना। तुझे पुरुषार्थ चलनेका कारण होता है। ऐसा भी कहनेमें आता है कि अच्छे संगमें रहना। मुनिओंको ऐसा उपदेश दिया है। सत्संग.. निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
मुमुभुः- जिसके प्रति राग हो, वह जीव तिर जाता है। समाधानः- ... राग हो अर्थात उसे ज्ञानीकी महिमा होती है। महिमा यानी उसकी स्वयंकी ओरकी यथार्थ महिमा होनी चाहिये। राग यानी महिमा होती है। ज्ञानीकी महिमा अर्थात उसे स्वभावकी महिमा है। वे क्या करते हैं? आत्माका क्या? उसे स्वभावकी महिमा, ज्ञानीकी महिमा अर्थात उनकी अंतर दशाकी महिमा है। अंतर दशाकी महिमा अर्थात मुझे यह चाहिये, ऐसा अन्दर गहराईमें आ जाता है।
शास्त्रमें आता है कि यह तत्त्वकी बात तत्प्रति प्रीतिचित्तेन वार्तापि ही श्रुता। यह जो तत्त्वकी बात है, उसे जिसने प्रीतिसे सुनी है, वह भावि निर्वाण भाजन है। गुरुकी वाणी, भगवानकी वाणी उसने प्रीतिसे सुनी इसलिये उसे भावि (निर्वाणका भाजन कहा है)। अंतरकी प्रीति लेनी।