१३० है। परन्तु पुरुषार्थ नहीं करता है इसलिये दुर्लभ हो गया है। स्वयंका स्वभाव है इसलिये सहज है, सुलभ है और सुगम है, लेकिन स्वयं करता नहीं है। स्वभाव है इसलिये प्रगट नहीं हो ऐसा नहीं है, हो सके ऐसा है। परन्तु स्वयं करता नहीं है।
मुमुक्षुः- समझमें भी आता है, परन्तु पुरुषार्थ चलता नहीं।
समाधानः- स्वयंका पुरुषार्थ करना बाकी रह जाता है। विधि बतायी-मार्ग बताया, गुरुदेवने समझानेमें कुछ बाकी नहीं रखा। उतना स्पष्ट कर-करके समझाया है। करना ही स्वयंको बाकी रह जाता है। पुरुषार्थ नहीं चलनेका कारण स्वयंका है। अपनी नेत्रके आलसके कारण, निरख्या नहीं हरिने जरी। अपनी नेत्रके आलसके कारण नेत्र खोलकर देखता नहीं है कि यह ज्ञायकदेव विराजता है। अपनी आलसके कारण देखता नहीं है।
गुरुदेवने पूरा मार्ग बताया है। कहाँ जाना, ज्ञायक कौन है, किस मार्गसे प्रगट होता है, क्या स्वानुभूति है, क्या मुनिदशा है, क्या केवलज्ञान है, क्या द्रव्य-गुण-पर्याय है, सब गुरुदेवने स्पष्ट कर-करके समझाया। परन्तु स्वयं नेत्र खोलकर देखता नहीं है। आलसके कारण सो रहा है। करना स्वयंको है, स्वयं ही नहीं करता है। जब भी करे तब स्वयंको ही करना है। उसका कोई कारण नहीं है। उसका बाह्य कारण कोई नहीं है। उसे कर्म रोकते नहीं। कर्म तो निमित्तमात्र है। पुरुषार्थ स्वयं ही नहीं करता है, और कोई कारण नहीं है। अपनी आलसके कारण बाहरमें कहीं भी रुक जाता है, अन्दरमें लगी नहीं है, आत्मामें इस परिभ्रमणकी थकान वास्तविकरूपसे नहीं लगी है, अंतरमेंसे मुझे ज्ञायकदेव ही चाहिये, उतनी लगनी नहीं लगी है। इसलिये स्वयंकी क्षति है।
मुमुक्षुः- शुद्धनयका विषय ऐसा शुद्धात्मा, उसका स्वरूप कैसा है, यह बताइये।
समाधानः- शुद्धनयका विषय ऐसा शुद्धात्मा अनादिअनन्त शाश्वत है। शाश्वत आत्मा शुद्धनयका विषय है। उसमें भेद आदि सब गौण हो जाता है। शुद्धनयके अन्दर एक चैतन्यद्रव्य अखण्डरूपसे आता है। उसमें सब भेदभाव गौण हो जाते हैं। ज्ञानमें सब जाननेमें आता है। आत्मामें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है।
ज्ञान अभेदको जाने, ज्ञान भेदको जाने, ज्ञान गुण-पर्याय सबको जानता है। दृष्टिका विषय एक चैतन्य (है)। उसमें सब विशेषोंको गौण करके एक ज्ञायक पर दृष्टि करता है, वह शुद्धनयका विषय है। एक ज्ञायकको लक्ष्यमेें लेता है। उसमें दूसरे विचार नहीं करता है। यह जो अनादिअनन्त अस्तित्व है, यह चैतन्य अस्तित्व-चैतन्यका अस्तित्व है वही मैं हूँ। अन्य किसी पर दृष्टि नहीं करता है। कहीं रुकता नहीं, भेदभावमें रुकता नहीं। मैं कौन हूँ, ऐसा विचार कर तो यह एक चैतन्यका अस्तित्व है वही मैं हूँ। इस प्रकार दृष्टिको उस थँभाकर पुरुषार्थ करे। ... तो होता है।