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मुमुक्षुः- लगनी चाहिये।
समाधानः- लगनी लगनी चाहिये। उसे क्षण-क्षणमें उसीको विचार आये, उसे उसके बिना चैन पडे नहीं, ऐसा हो तो वह प्रगट होता है। यह तो अंतर चक्षुसे देखना है। अंतरमें अंतर चक्षु खोलकर देखना है। अंतरमें क्या परिणाम होते हैं और अन्दर ज्ञान क्या काम करता है और अन्दर चैतन्यतत्त्व क्या है, उसे अंतर चक्षु खोलकर देखना है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने कहा कि, कल प्रवचनमें आया कि, श्रद्धा अँधी है, श्रद्धा कुछ जानती नहीं है। तो जो श्रद्धा होती है वह ज्ञानकी प्रेरणासे श्रद्धा होती है या कैसे होती है?
समाधानः- ज्ञानसे विचार करके नक्की करता है, बराबर निश्चय करता है कि मैं यह ज्ञायक हूँ, ऐसा निश्चय करता है। ज्ञान उसका साधन बनता है। ज्ञानसे ज्ञात होता है। पहले शुरूआतमें ज्ञानसे ही ज्ञात होता है। ज्ञानसे निश्चय करके दृष्टि ज्ञायक पर स्थिर करता है। दृष्टिका विषय ज्ञायक है। ज्ञान द्वारा वस्तु जाननेमें आती है। ज्ञान द्वारा जाननेमें आती है। ज्ञान स्वयंको जानता है, ज्ञान दर्शनको जानता है, ज्ञान अनन्त गुणोंको जानता है, ज्ञान पर्यायको (जानता है)। सबको, ज्ञान स्वद्रव्य परद्रव्य सबको ज्ञान जानता है।
मुमुक्षुः- दृष्टिका विषय एवं श्रद्धाका विषय, दोनों एकार्थ है?
समाधानः- दोनों एक ही है-श्रद्धाका विषय एवं दृष्टिका विषय एक ही है। ... तो उसकी साधकदशा शुरु होती है। निश्चय बराबर नहीं होता है तो आगे नहीं बढ सकता। अन्दर इतनी लगी हो तो मार्ग हुए बिना नहीं रहता। ज्ञान करे लेकिन अन्दरमें राग और शुद्धात्मा भिन्न है, अन्दर यदि उतनी लगनी लगी हो तो मार्ग हुए बिना रहता नहीं। दृष्टिका विषय ऐसा कोई दुर्लभ नहीं है कि न हो, समझमें नहीं आये ऐसा नहीं है। और प्रगट नहीं हो ऐसा भी नहीं है। अपना स्वभाव है। परन्तु स्वयंको अन्दर उतनी लगी हो तो समझमें आये। थोडा समझे परन्तु अन्दर स्वयंको समझे तो हो सके ऐसा है।
शिवभूति मुनि कुछ जानते नहीं थे, भूल जाते थे। याद भी नहीं रहता था। गुरुने क्या कहा वह भी भूल गये थे। गुरुका आशय याद रखकर, वह औरत दाल धो रही थी, छिलका और दाल भिन्न-भिन्न है, ऐसा मेरे गुरुने कहा है, ऐसा स्मरण आते ही अंतरमें ऊतर गये कि आत्मा भिन्न और यह राग भिन्न है। ऐसे अंतरमें भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये।
उतना थोडा मूल प्रयोजनभूत समझकर अन्दर यदि परिणति रूपसे प्रगट करे तो