Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 565 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

१३२ वस्तु कोई दुर्लभ नहीं है। लेकिन अंतरमें स्वयंको उतनी लगी ही नहीं है। शुद्धनयका विषय तो स्वयं स्वयंका एक चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करे, उसमें सब आ जाता है। परन्तु वह ज्ञानसे पहले नक्की करता है। निश्चय करके दृष्टिका जोर आता है। इसलिये दृष्टि एक पर स्थापित करता है। दृष्टि चारों ओर नहीं जाती है। दृष्टिको एक चैतन्य पर स्थापित करता है। ज्ञान भी चैतन्य पर जाता है और दृष्टि भी जाती है। लेकिन ज्ञान सब जानता है।

राग और शुद्धात्मा, दोनोंके स्वभाव प्रगटरूपसे भिन्न है। राग आकुलतारूप है, चाहे जैसा उच्च कोटिका राग हो तो भी वह आकुलता (रूप है), अन्दर विचार करे तो वह आकुलता रूप है। वह कोई शान्तिरूप नहीं है। आत्मामें शान्ति उत्पन्न नहीं करता। राग तो विभाव है। अशुभ एवं शुभ दोनों राग है, आकुलातरूप है। और उससे भिन्न जानन स्वरूप ज्ञान है-ज्ञायक, वह शान्तिरूप है। उसमें आकुलता नहीं है। ज्ञान जो जाननेवाला है वही मैं हूँ। यह राग और आकुलस्वरूप-आकुलतारूप और दुःखरूप परिणति वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। जाननेवाला है वह मैं हूँ। परन्तु वह जाननेवाला अर्थात दूसरेको जानता हूँ, इसलिये (जाननेवाला हूँ, ऐसा नहीं), परन्तु मैं तो स्वयं जाननेवाला ज्ञायक हूँ।

समाधानः- ... गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट करके समझाया है। आत्मा कैसा है? आत्मा सिद्धस्वरूप है। गुरुदेवने स्पष्ट करके समझाया है, सबको जागृत किया है। और स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। गुरुदेवने समझाया, मैं तो उनका दास हूँ। उनके पास सब (समझे हैं)।

गुरुदेवने कहा है कि आत्मा परमात्मस्वरूप है, सिद्ध भगवान जैसा है। प्रभुत्व शक्तिवाला है। वह आत्मा स्वयं समझे तो होता ही है। जैसे गुण सिद्ध भगवानमें हैं, वैसे ही गुण आत्मामें हैं। सिद्ध भगवानमें केवलज्ञान, केवलदर्शन, चारित्र आदि हैं, ऐसे ही गुण शक्तिरूपसे प्रत्येक आत्मामें हैं। उसमें सहज ज्ञान, दर्शन, चारित्र, केवलज्ञान शक्तिरूप है। केवलदर्शन शक्तिरूप, चारित्र शक्तिरूप, आनन्द शक्तिरूप, सब गुण शक्तिमें भरपूर भरे हैं। उसमेंसे एक भी कम नहीं हुआ है।

अनन्त काल गया, अनन्त भव हुए, निगोदमें गया और चारों गतिमें भटका तो भी आत्मा तो वैसा का वैसा द्रव्यदृष्टिसे सिद्धस्वरूप है। परन्तु वह पहचानता नहीं है, दृष्टि बाहर है इसलिये आत्माको पहचानता नहीं है। उसे भ्रान्ति हो गयी है। आत्माको पहचाने तो हो सके ऐसा है। आत्मा सिद्ध भगवान जैसा है।

मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे,
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे! ३८.