९१
मैं एक शुद्धस्वरूपी आत्मा हूँ। चाहे जितने भव किये, फिर भी आत्मा एकस्वरूप ही रहा है। अनेक प्रकारके विभाव हुए तो भी शुद्धतासे भरा शुद्धात्मा ... विभावका भी अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है। किसी भी विभावस्वरूप आत्मा नहीं हुआ है, किसी अनेक स्वरूप भी आत्मा नहीं हुआ है। ऐसा आत्मा शुद्ध स्वरूपी, एक स्वरूप आत्मा, ऐसा आत्मा कोई वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शरूप नहीं हुआ है। आत्मा अरूपी है। उसमें कोई वर्ण, गन्ध, रस आदि नहीं है। ऐसा आत्मा अरूपी आत्मा है। ज्ञान, दर्शनसे भरपूर भरा आत्मा है और कोई अदभुत वस्तु है।
कोई अन्य परमाणु मात्र भी आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्मा अपनी प्रताप संपदासे भरा है। उसकी प्रताप संपदा अनन्त-अनन्त भरी है। परन्तु वह उसे पहचानता नहीं है। उसे पहचाने, उस पर दृष्टि करे, उसका विचार करे, उसकी जिज्ञासा करे, उसका भेदज्ञान करे कि यह विभाव सो मैं नहीं हूँ, परन्तु यह ज्ञानस्वरूप ज्ञायक सो मैं हूँ। उसका असाधारण लक्षण ज्ञान है, उस ज्ञान द्वारा पहचानमें आये ऐसा है। परन्तु अनन्त गुणोंसे भरा अत्यंत महिमावंत अत्यंत विभूतिसे भरा आत्मा है। उसका ज्ञान उसके लक्षण द्वारा पहचानमें आता है।
यह विभावभाव आकुलतारूप है और आत्माका स्वाद शान्ति, आनन्द है। उसका स्वादभेद है, उसका लक्षणभेद है। उसका भेदज्ञान करके पहचाने। अनन्त कालसे एकत्वबुद्धि हो रही है। उसका बारंबार अभ्यास करके मैं भिन्न चैतन्य सिद्ध भगवान जैसा आत्मा हूँ, (ऐसा) बारंबार अभ्यास करे तो होता है।
जो गुरुने कहा, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रमें जो आता है, उसे स्वयं विचार करके नक्की करे। गुरुदेवने जो वचन कहे, उन वचनोंको प्रमाण करके स्वयं विचार करे। अंतरमें निर्णय करे। देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति और अंतरमें ज्ञायककी भक्ति, ज्ञायककी श्रद्धा, ज्ञायकका ज्ञान और विभावसे भिन्न होकर ज्ञायककी महिमा करे। वह न हो तबतक बाहरमें देव- गुरु-शास्त्र, उसके निमित्त.. उसके महान निमित्त हैं। प्रबल निमित्त है, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। अंतरमें स्वयं ज्ञायककी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे, उसकी महिमा करे और विभावसे भिन्न होकर, न्यारा होकर पहचाने तो पहचान सके ऐसा है। यह सब आकुलता लक्षण है वह मैं नहीं हूँ, मैं तो निराकुल लक्षण ज्ञायक हूँ। ऐसा भेदज्ञान करके अंतरसे भिन्न पडे तो वह पहचाना जाय ऐसा है।
भेदज्ञान करे, ज्ञाताधाराकी उग्रता करे। क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार अंतरसे भिन्न पडे तो सिद्ध भगवान जैसी उसे स्वानुभूति होती है और सिद्ध भगवान जैसा अंश उसे प्रगट होता है। स्वानुभूतिकी दशा कोई अदभुत है। वह गृहस्थाश्रममें हो तो भी कर सकता है। फिर वह आगे बढता है, बादमें मुनिदशा आती है। विकल्पजाल