१३४ क्षणमात्र नहीं टिकती। विकल्प छूटकर शान्त चित्त होकर अमृतको पीवे ऐसी अपूर्व स्वानुभूति होती है। लेकिन वह स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है, स्वयं करे तो होता है। स्वयंको लगे तो होता है, स्वयं लगनी लगाये तो होता है। बाहरसे नहीं हो सकता है, परन्तु अंतरसे ही हो सकता है। उसका ज्ञान, उसकी प्रतीत दृढ करे। यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, ऐसा नक्की करके फिर स्वयं आगे बढे, उसमें लगनी लगाये, लीनता करे, उसमें एकाग्रता करे तो विभावसे भिन्न होकर उसे कोई अपूर्व आत्माकी प्राप्ति होती है। इसके सिवा कोई उपाय नहीं है।
गुरुदेवने यह बताया है, करना यही है। जो मोक्ष पधारे वे सब भेदविज्ञानसे ही गये हैं, जो नहीं गये हैं वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं गये हैं। इसलिये भेदविज्ञान, द्रव्य पर दृष्टि, उसका ज्ञान और लीनता, यह उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। परन्तु मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ, ऐसा नक्की करके मैं कोई अपूर्व आत्मा हूँ, ऐसे ज्ञायक पर दृष्टि करके, प्रतीत करके दृढता करे तो हो सके ऐसा है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। गुरुदेवने बताया, सबको एक ही करना है। ध्येय एक ही-आत्मा कैसे पहचानमें आये? उसकी एककी लगनी लगे तो हो सके ऐसा है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।
... वह अपने तत्त्वमें, मृग कस्तूरी बाहर खोजता है, लेकिन कस्तूरी उसके पासे है। वैसे सुख बाहर खोजता है, लेकिन सुख स्वयंके पास है, अपने तत्त्वमें ही सुख भरा है। इसलिये उसीमें खोजना है। उस तत्त्वको पहचानना, सुख किसमें है उसे पहचानना। ज्ञायकतत्त्वमें सुख भरा है उसे पहचाने और उसकी महिमा करे, उसकी लगनी लगाये, भेदज्ञान करे तो वह सुख प्राप्त होता है।
विभावका रस छूट जाय, उसकी एकत्वबुद्धि छूट जाय, बाहरका रस छूट जाय तो अंतरमें यदि ज्ञायकदेवकी रुचि हो तो उसमेंसे सुख प्रगट होता है। सुख कहीं बाहरसे नहीं आता है, सुख तो अपनेमें है। जो इच्छता है, उसमें स्वयमें-उस तत्त्वमें सुख भरा है। इसलिये अंतरमें खोजना है, बाहर कहीं सुख नहीं है। सुख-सुख करता है और रागके रसमें बाहर पडा रहता है, यह सब बाहरके अनेक प्रकारके कषायमें एकत्वबुद्धि करके पडा है, लेकिन उसमें कहीं सुख नहीं है, सुख आत्मामें है। इसलिये उसीमें खोजना है।
भेदज्ञान करके देखे, रागसे भिन्न पडे, उससे न्यारा हो तो सुख प्राप्त हो। और अंतरमें अपना अस्तित्व ग्रहण करे तो सुख प्राप्त होता है। बाहरसे कहींसे सुख प्राप्त नहीं होता, स्वयंमें है। इसलिये स्वयंमें ही खोजना है और पुरुषार्थ उसी ओरका करना है। सुख बाहर खोजे, लेकिन कहीं नहीं मिलेगा, कहीं शान्ति नहीं मिलेगी, सुख स्वयंमेंसे ही मिलेगा।