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समाधानः- अनादि कालसे जीव विभावमें पडा है, विभावके साथ एकत्वबुद्धि है। आत्मा तो ज्ञाता है। उसमें किसी भी प्रकारके क्रोध, मान, माया, लोभ कोई कषाय उसमें नहीं है। स्वयं अन्दर उस प्रकारकी परिणति नहीं करता है और कषायमें जुड जाता है, वह नुकसानका कारण होता है।
जिसे आत्मार्थता हो, आत्माका प्रयोजन हो, उसे वह सब कषाय, मान कषाय गौण हो जाता है। उससे भिन्न होकर भेदज्ञान करे तो वह मानकषाय गौण हो जाता है। इसलिये आत्मार्थका प्रयोजन, एक आत्मा कैसे प्राप्त हो, ऐसी यदि भावना, जिज्ञासा हो तो उस आत्मार्थके प्रयोजनके आगे वह सब कषायें गौण हो जाती है। जो-जो रुकते हैं वे सब पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकते हैं। जिसे पुरुषार्थकी उग्रता हो, वह उसमें रुकते नहीं। जिसे कषायोंकी कोई विशेषता नहीं लगी है, जिसे मानमें कोई विशेषता नहीं लगी है, बडप्पन.... स्वस्वरूप चैतन्य स्वयं महिमावंत ही है, आश्चर्यकारी तत्त्व है, महिमासे भरा है। बाहरसे बडप्पन लेने जाय, वह उसकी अनादि कालकी भूल है और भ्रान्तिमें पडा है। इसलिये जो कषायोंमें एकत्वबुद्धिसे अटका है, उसे वह जोर कर जाता है। बाकी जो अपने स्वरूपको जाने, भेदज्ञान करे और उस प्रकारकी लीनता करे तो उसे वह कषाय छूट जाता है।
सम्यग्दर्शन होनेके बाद अल्प अस्थिरताके कारण कषायें होती हैं, परन्तु उसमें वह कहीं रुकता नहीं। जो रुकता है वह स्वयंकी पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है। उसे कोई रोकता नहीं है। इसलिये यदि प्रयोजन आत्माका हो तो उसे कोई अवरोध नहीं है। जिसे आत्माका प्रयोजन छूट जाय और बडप्पनका प्रयोजन आये तो वह उसके अटक जाता है।
इसलिये हर जगह मानकी बात आती है। मानको गौण करके स्वयं स्वयंके स्वरूपमें (जाये)। मेरा स्वभाव ही महिमावंत है। बाहरसे बड्डपन लेने जाता है, वह उसकी भूल है। इसलिये उसमें नहीं जुडकर, आत्मामें आत्माका प्रयोजन रखे तो वह कषाय गौण हो जाता है। जो जिसमें रुकता है वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है, उसमें दूसरा कोई कारण नहीं होता।