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जीवको अनादि कालसे बड्डपन रुचता है, मैं बडा कैसे होऊँ? लेकिन अन्दरसे उस प्रकारका गुण प्रगट नहीं करता है और मानमें रुकता है, वह उसके पुरुषार्थकी मन्दता और भ्रान्तिके कारण रुकता है। इसलिये देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा हृदयमें रखकर शुद्धात्माका ध्येय रखे तो उसे कोई कषायें रोकती नहीं। सबसे निरसता आ जाय और एक चैतन्यकी महिमा आये तो सब कषायें उसे गौण हो जाती हैं।
जो रुकता है, वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है। जो आगे बढता है, वह पुरुषार्थसे आगे बढता है। सबसे भिन्नता करके, भेदज्ञान करके पुरुषार्थसे आगे बढता है। अनन्त कालसे बड्डपन प्राप्त करनेका मिथ्या प्रयत्न किया, परन्तु बड्डपन मिला नहीं। आता है, जगतको अच्छा दिखानेका प्रयत्न किया, परन्तु स्वयं अच्छा नहीं होता। मैं स्वयं कैसे अच्छा होऊँ, मुझे मेरा स्वभाव कैसे प्रगट हो, ऐसी भावना अन्दर हो। और चैतन्यतत्त्व मैं महिमावंत हूँ। बाहरसे महिमा, बाहरसे बड्डपन नहीं लेकरके, मैं ही स्वयं महिमाका भण्डार हूँ, ऐसी दृष्टि करके, ऐसा प्रयोजन रखकर आगे बढे तो कोई कषाय उसे रोकता नहीं।
जो रुकता है, वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रुकता है। जो पुरुषार्थकी तीव्रता करे उसे नीरसता आ जाती है। आत्माका प्रयोजन हो तो कोई नहीं रोक सकता। मेरा स्वभाव भगवान जैसा प्रभु हूँ। लेकिन पर्यायमें मैं पामर हूँ। ऐसी भावना रखकर आगे बढे तो उसे कोई रोक नहीं सकता। थोडे-थोडेमें मैंने कुछ किया, मैं बडा हूँ, ऐसी भावना रहे तो आत्माका प्रयोजन उसमें गौण हो जाता है। आत्माका प्रयोजन हो तो उसे कोई नहीं रोकता। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा रखकर आत्माका प्रयोजन साधे, शुद्धात्माका ध्येय रखे तो उसे कोई नहीं रोक सकता।
जाता सदगुरु शरणमां, अल्प प्रयासे जाय।
मुमुक्षुः- ... चक्रवर्ती राजपाट छोड देते हैं, वह सुख कैसा होगा?
समाधानः- वह सुख तो अपूर्व एवं अनुपम है। जिसके आगे जगतकी कोई उपमा नहीं है। चक्रवर्तीका राज भी उसके आगे तुच्छ है। चक्रवर्तीओंको भी तुच्छता लगी इसलिये सब छोडकर चल देते हैं। ऐसा अनुपम तत्त्व आत्मा, जिसे कोई उपमा नहीं है। वह पूरा तत्त्व आश्चर्यकारी है। अनन्त गुणोंसे भरपूर, जिसे जगतके किसी भी प्रकारके साथ मेल नहीं है। जगतका सुख तो कल्पित है और कल्पनासे सुख माना है।
आत्माका सुख तो कोई अनुपम है। उसकी श्रद्धा करे और वह आगे बढे तो वह स्वानुभूतिमें ज्ञात हो ऐसा है। बाकी वह तत्त्व अनुपम है। चक्रवर्ती भी उसे तुच्छ