१४६ तब अपने आत्माको जानता है।
भगवानका स्वरूप जो जाने तो अपने आत्माको पहचाने बिना रहता ही नहीं। भीतरमेंसे जानना चाहिये। ऐसे सब आत्मा शुद्ध स्वरूप ही है। शुद्धात्मा है। उसमें पुरुषार्थ करे कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ, शुद्धात्मा हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभावसे मैं भिन्न ही हूँ। मेरा स्वभाव मैं जाननेवाला हूँ। मेरेमें अनन्त गुण है। जैसे भगवानमें हैं, वैसे मेरेमें हैं। ऐसा विचार करे तो अपने आत्माको पहचानता है। उसमें स्वानुभूति होती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र-लीनता करनेसे होता है। बारंबार उसमें लीन होनेसे केवलज्ञान होता है। ऐसे भगवानका स्वरूप जाने भीतरमेंसे तो अपना स्वरूप प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- परम पूज्य भगवती माताजी! अंतिम प्रश्न है कि छद्मस्थके लिये ज्ञानियोंको सुखका वेदन सर्वांगसे होता है या नियत प्रदेशोंसे होता है? सुखका वेदन नियत प्रदेशोंसे होता है या सर्वांगसे होता है? छद्मस्थके लिये।
समाधानः- वह तो आत्मामें है... शास्त्रमें आता है कि जहाँ मन होता है, मनके निमित्तसे यहाँ होता है। वह सर्वांगसे होता है या अमुक प्रदेशमें होता है, यह जाननेका कुछ प्रयोजन नहीं है। जो आत्माको जानता है, उसको स्वानुभूति होती है। मनके निमित्तसे... मन छूट जाता है विकल्प और निर्विकल्प दशा होती है। सर्वांगसे होवे या अमुक प्रदेशसे होवे, वह तो जाननेकी बात है। शास्त्रमें जो आता है वह होता ही है।
मुमुक्षुः- आत्मदर्शनके लिये ज्ञान एकदम त्वरासे कैसे प्राप्त कर सके?
समाधानः- प्रयोजनभूत ज्ञान। ज्यादा जाने, शास्त्र ज्यादा जाने तो... गुजराती समझमें आता है न? ज्यादा शास्त्रका अभ्यास करे, शास्त्र जाने, ऐसा कुछ नहीं है उसमें। आत्माको जाने मूल प्रयोजनभूत कि मैं एक ज्ञायक आत्मा हूँ और यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा भेदज्ञान करके अंतरमें जाय, ऐसा यथार्थ ज्ञान हो तो वह आगे जाता है। प्रयोजनभूत ज्ञान।
मुमुक्षुः- भेदज्ञान करनेके लिये सरल उपाय...?
समाधानः- सरल उपाय, आत्माकी लगनी लगाये, जिज्ञासा करे, उसकी लगनी होवे तो होता है, बिना लगनीके नहीं हो सकता। लगनी लगाये, मैं ज्ञायक हूँ। मैं कौन हूँ? मेरा स्वभाव क्या है? मैं शाश्वत आत्मा हूँ। अनादिअनन्त द्रव्यमें कोई अशुद्धता नहीं है, पर्यायमें अशुद्धता है। पर्यायकी अशुद्धता टालनेको अन्दर भेदज्ञान करे।
भेदज्ञान करनेका उपाय अन्दर लगनी लगे, कहीं सार न लगे। सारभूत आत्मा ही है, बाकी कोई सारभूत नहीं है। तो वह विभावसे भिन्न हुए बिना नहीं रहता। विभाव