५८ कोई विकल्प नहीं है, विकल्प बिनाका आत्मा-ज्ञायक है। विकल्पसे (शून्य) आत्मा है। उसमें आनन्द भरा है, उसमें ज्ञान भरा है। जन्म-मरण उससे टलते हैं, आत्माको पहचाने तो टलते हैं, बाकी नहीं टलते।
जीवने बाहरका सब अनन्तकालमें किया। बाहरकी क्रिया (करके) देवमें जाये, परन्तु देवमेंसे (निकलकर भी) जन्म-मरण तो वैसे ही रहते हैं, भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है। आत्माको कैसे पहचानुं, उसके लिये उसकी लगनी, जिज्ञासा हो तो होता है।
मुमुक्षुः- निद्रासे जागने पर भक्ति आदि तो याद आ जाती है, वह शुरू हो जाती है, परन्तु आत्मा सम्बन्धित विचार, आत्मा कैसा है, उसके विचार नहीं आते हैं, तो क्या करना?
समाधानः- .. लगे तो होता है। अशुभसे बचनेको शुभभाव आये, भक्ति आये, सब आये। अन्दर आत्माकी लगनी लगे और आत्माकी महिमा लगे तो होता है। तो आत्माके विचार आते हैं। आत्माकी महिमा लगनी चाहिये। आत्माको पहचाने नहीं तबतक भक्तिके विचार आये, भक्तिकी भावना आये, शुभभाव आये, परन्तु आत्मा भी महिमावंत है, ऐसे आत्माकी महिमा आये तो उस ओरके (विचार चले)। आत्माकी महिमा आनी चाहिये। आत्मा भी एक देव, ज्ञायकदेव है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्मा है।
... समझमें नहीं आता। तो क्षपण श्रेणि लगाकर आगे (जाते हैं)। आता है न? क्षपक श्रेणि यानी आत्मा ऐसी श्रेणी चढता है। प्रथम तो सम्यग्दर्शन हो तब स्वानुभूति होती है। बाहरमें विकल्प आते थे, फिर भी अन्दरसे उनका आत्मा न्यारा ही रहे, आत्मा भिन्न ही रहे, निरंतर ऐसी दशा उनकी हो जाती है। ज्ञायक-ज्ञायक ऐसी ज्ञाताधारा हो जाती है। अन्दर स्वानुभूति होती है। कभी लीन हो जाते हैं। इसीप्रकार वह गृहस्थाश्रममें ही आगे बढते-बढते ऐसी भावना हो जाती है कि यह सब छोडकर मैं मुनि कैसे बन जाऊँ। जब मुनि हो जाते हैं, तब अन्दर आत्मामें बार-बार लीन हो जाते हैं। यथार्थ मुनिपना। बाहरसे छोड दे, अभी छोड देते हैं ऐसे नहीं, अन्दर यथार्थ भावसे हो जाये। गृहस्थाश्रममें रह नहीं सके, ऐसी उसकी दशा हो जाती है। फिर अन्दर मुनिपना लेकर आत्मामें (लीन हो जाते हैं)। क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होते हैं।
भगवानके दर्शन करे, देव-गुरु-शास्त्रके विचार करे, बाकी सब तो उन्हें छूट गया है। वह करते हैं, फिर भी अन्दरमें क्षण-क्षणमें अंतर्मुहूर्तमें आत्मामें चले जाते हैं। क्षण- क्षणमें स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। चलते-फिरते कई बार क्षण-क्षणमें लीन हो जाते हैं। सोये हो तो क्षण-क्षणमें अंतरमें चले जाते हैं। ऐसी उनकी दशा हो जाती है। आत्माकी