मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान उसमें क्या अंतर है?
समाधानः- स्वकी समझ वह सम्यग्दर्शन अर्थात सच्चा ज्ञान और सच्ची प्रतीत एवं स्वानुभूति वह सम्यग्दर्शन। सच्चा ज्ञान जिसमें यथार्थ हो, स्वभावकी जोरदार प्रतीति है, भेदज्ञान है और स्वानुभूति है, वह सम्यग्दर्शन।
केवलज्ञान अर्थात पूर्ण हो गया। सम्यग्दर्शन तो उसकी साधना है। उसे एक अंश प्रगट हुआ है। ... पूर्णताके लिये और केवलज्ञान होता है... स्वानुभूतिमें विशेष-विशेष आगे बढते-बढते पूर्ण पराकाष्टा हो जाती है कि जिस स्वानुभूतिमेंसे फिर बाहर ही नहीं आता है। इस स्वानुभूतिमेंसे बाहर आता है। उस स्वानुभूतिमेंसे बाहर ही नहीं आता है। स्वरूपमें गया सो गया, समाया सो समाया, फिर बाहर नहीं आता। उसमें जो ज्ञान प्रगट होता है वह केवलज्ञान है। और वह ज्ञान ऐसा है कि अपने स्वभावमें रहकर, देखने नहीं जाता, जानने नहीं जाता। बाहर कुछ नहीं करता, स्वयं स्वरूपमें समा जाता है। तो भी स्वभावमें रहकर ही लोकालोकको एक समयमें जान सके ऐसी कोई अपूर्व शक्ति, अपूर्व ज्ञान प्रगट होता है।
स्वयंको जान लेता है, दूसरोंको जान लेता है, कल्पना किये बिना, विकल्प किये बिना सहज। जाननेकी इच्छा नहीं है। स्वरूपमें समा गया है। उसमें जो ज्ञान प्रगट होता है वह केवलज्ञान। पूर्ण हो गया। फिर उसे कुछ करना बाकी नहीं रहता। स्वरूपमें समा गया सो समा गया। वीतराग हो गया, वह केवलज्ञान।
स्वानुभूति हुयी वह तो एक अंश है। वह स्वानुभूतिमेंसे बाहर आता है, उसे विकल्प आता है। लेकिन आत्मा भिन्न रहता है। आत्मा भिन्न रहता है, पुनः उसे बारंबार अपनी दशा अनुसार स्वानुभूति होती है और बाहर आता है। ऐसी दशा जिसकी हो, वह सम्यग्दर्शन है। वह तो गृहस्थाश्रममें भी होती है। अंतरमेंसे स्वानुभूति होती है। परन्तु अन्दरसे न्यारा-निर्लेप रहता है। यह तो मुनि हो जाता है, उसे केवलज्ञान होता है। मुनिकी दशामें आये, बारंबार स्वानुभूतिमें लीन होता है, ऐसी मुनिदशामें केवलज्ञान होता है। बस, बाहर नहीं आये, ऐसा हो जाता है।
अभी मुनि है तो वह साधना है। परन्तु जब केवलज्ञान होता है, तब पूर्ण वीतरागी