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मुमुक्षुः- यह सब जो जीव हुए वह सब भगवानमेंसे छूटकर हुए या दूसरे हुए?
समाधानः- जीव तो अनादिअनन्त है ही। अनादिअनन्त है। ... भिन्न है। ज्ञायक आत्माको पहचानना वह करना है। अन्दर जो विभाव होता है वह अपना स्वभाव नहीं है। ज्ञायकको पहचानना। ज्ञायककी रुचि रखनी, वह जबतक न हो तबतक शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। यह ज्ञायक कैसे पहचानमें आये? और मुनिओंके धर्म जो क्षमा, आर्जव, मार्दव आदि सब मुमुक्षुकी भूमिकामें भी सबको होते हैं। मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य आदि सब मुमुक्षुकी भूमिकामें भी होता है। इसलिये उसकी आराधनापूर्वक और ज्ञायककी आराधनापूर्वक आत्मामें.. आत्माका स्वभाव है। वह आत्माका स्वभाव कैसे प्रगट हो? उसकी रुचि और वह कैसे प्रगट हो, उसका प्रयास करना वही करना है। जीवनमें भेदज्ञान करके ज्ञायक कैसे पहचानमें आये, यह करना है। सम्यग्दर्शनपूर्वक वह धर्म होते हैं। मुनिकी दशामें वह सब आराधना करनी होती है। परन्तु मुमुक्षुकी भूमिकामें भी वह होते हैं। दस धर्म आदरने योग्य हैं, ज्ञायकके ध्येयपूर्वक।
आत्मामें आनन्द और अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द आदि अनन्त गुण आत्मामें भरे हैं। उसकी महिमा, उसकी रुचि, परसे विरक्ति और स्वभावकी महिमा आदि सब करने योग्य है। वह न हो, तबतक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाय, उसका प्रयास करना।
जीवने बाहरमें बहुत किया, क्रियाएँ की, शुभभाव किये, पुण्यबन्ध हुआ परन्तु भवका अभाव कैसे हो, उसकी उसने अन्दरसे श्रद्धा नहीं की है। गुरुदेवने मार्ग बताया कि शुभाशुभ परिणामसे भी भिन्न जो शुद्धात्मा है, उस शुद्धात्माको पहचान तो भवका अभाव हो। उसकी श्रद्धा कर, उसका ज्ञान कर, उसमें लीनता कर तो भवका अभाव हो और अंतरमें स्वानुभूति प्रगट हो, वह करना है।
.. भीगा हुआ होना चाहिये, रुखा नहीं होता। अन्दरसे भीगा हुआ। मुझे आत्मा कैसे पहचानमें आये? अन्दरसे इस भवभ्रमणकी थकान लगी हो, बस, इस भवभ्रमणसे बस होओ, भवका अभाव कैसे हो? विभावसे थकान लगे, यह सब अन्दरके विकल्प, राग-द्वेष आदि सबसे थकान लगी हो और अंतरमें कैसे जाना हो? ऐसी अंतरमें उसे प्यास लगी हो, उसकी लगन लगी हो, उसका हृदय भीगा हुआ होता है, शुष्क नहीं होता।
आत्मा भिन्न है यानी आत्मामें कुछ नहीं है, इसलिये आत्माको कुछ नहीं लगता, जो भी करो कोई दिक्कत नहीं है, ऐसी उसे अन्दरसे शुष्कता नहीं होती और हृदय