१५२ भीगा हुआ होता है। दो पदार्थ भिन्न हैं, परन्तु अन्दर अपनी परिणतिमें एकत्वबुद्धि हो रही है, उससे कैसे छूटा जाय? ऐसी उसे अन्दरसे लगनी होनी चाहिये। वस्तु स्वभावसे ज्ञायक भिन्न है, परन्तु परिणति उसमें मलिन हो रही है, उससे कैसे (भिन्न होकर) निर्मल पर्याय कैसे प्रगट हो? ऐसी भावना होनी चाहिये।
आचार्यदेव कहते हैं न? मैं शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ। परन्तु मेरी परिणति जो कल्माषित- मलिन हो रही है, उसकी पूर्णता कैसे हो? उसकी भावना मुनिराजोंको भी होती है। तो यह तो एक मुमुक्षुकी दशा है। उसका भीगा हुआ हृदय हो कि आत्मा कैसे प्रगट हो? यह परिणति जो अनादिकी एकत्वबुद्धि हो रही है, वह छूटकर भिन्न ज्ञायक भिन्न है, वह कैसे (पहचानुँ)? वस्तु स्वभावसे भिन्न है, परन्तु प्रगट भिन्न परिणतिमें कैसे प्रगट हो? ऐसी उसे रुचि, भावना, ऐसा प्रयास होना चाहिये। स्वभावसे शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें शुद्धता कैसे हो, ऐसी अन्दर लगनी होनी चाहिये। मुनिदशा आवे और फिर पूर्णता होती है।
मुमुक्षुः- सत्पुरुषसे मुमुक्षुका वैराग्य बढ जाना चाहिये, वह कैसे?
समाधानः- सत्पुरुषसे मुमुक्षुका वैराग्य बढ जाना चाहिये? (वैराग्य) शिखरका शिखामणि मुनिराजको कहते हैं। सम्यग्दर्शनमें भी ऐसा वैराग्य होता है और मुमुक्षुदशामें भी वैराग्य होता है। सच्चा यथार्थ वैराग्य तो उसे सम्यग्दर्शन हो उसे यथार्थ वैराग्य होता है। मुनिदशामें यथार्थ वैराग्य होता है। पहलेका वैराग्य उसे भावनारूप होता है। वैराग्य तो होना चाहिये, लेकिन सत्पुरुषसे भी बढ जाय ऐसा शब्द कहीं नहीं आता। त्याग सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है।
त्याग सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। उसकी विरक्ति वह विरक्ति है। बाकी वैराग्य होता है, मुमुक्षुदशामें तीव्र वैराग्य होना चाहिये। परपदार्थ प्रति उदासीनता आ जाय। आत्माकी महिमा आवे। उदासीनता मुमुक्षुदशामें होनी चाहिये, पात्रतामें होनी चाहिये। "त्याग विराग न चित्तमां थाय न तेने ज्ञान'। त्याग-वैराग्य जिसके चित्तमें नहीं है, जिसके मनमें त्याग एवं वैराग्य नहीं है, उसे ज्ञान नहीं होता।
"अटके त्याग वैराग्यमां तो भूले निज भान'। यदि स्वयंको समझनेकी ओर दृष्टि नहीं है और सच्चा ज्ञान करके अपना स्वभाव नहीं पहचानना चाहता, मात्र बाह्यमें रुक जाता है, बाह्य त्याग-वैराग्यमें, तो भी आत्माको नहीं पहचानता।
आत्मा कैसे पहचानमें आये, ऐसे तत्त्वविचार प्रति ध्यान होना चाहिये। और त्याग, वैराग्य उसके चित्तमें होना चाहिये। त्याग, वैराग्य मुमुक्षुकी भूमिकामें होने चाहिये। नहीं तो वह शुष्क-आत्माको कुछ लेना-देना नहीं है, आत्मामें कहाँ कुछ है, ऐसी शुष्कता हो तो आगे नहीं बढ सकता। त्याग, वैराग्य उसके चित्तमें होना चाहिये और तत्त्व पर दृष्टि होनी चाहिये। सच्चे ज्ञान पर उसकी दृष्टि होनी चाहिये और वैसे विचार होने