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बाहरसे कितना छोड सके वह नहीं, त्याग-वैराग्य उसके हृदयमें होना चाहिये। उसका हृदय भीगा हुआ होना चाहिये। सबसे चित्तमें वैराग्य और विरक्ति, उसका चित्त अंतरसे न्यारा होना चाहिये।
समाधानः- ... गुरुदेवने बहुत उपदेश दिया है और भगवानकी वाणीमें भी आता है। करना तो स्वयंको है। उपदेश तो असिधारा जैसा है। यदि स्वयं तैयार हो तो भेदज्ञान हो जाय। दो टूकडे हो जाय। आत्मा भिन्न-ज्ञायक भिन्न और विभाव भिन्न। भेदज्ञान हो जाय ऐसा असिधारा जैसा उपदेश है भगवानका। और गुरुदेवका भी ऐसा था कि बारंबार आत्माका स्वरूप बताते थे, सूक्ष्मतासे स्पष्ट कर-करके। करना तो स्वयंको पुरुषार्थसे स्वयंको ही करना है। आत्माको पहचानना, ज्ञायक भिन्न है, विभाव स्वभाव अपना नहीं है। शरीर भिन्न, सब भिन्न। भेदज्ञान करके अंतरमें स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। बाहरसे कुछ होता नहीं। अंतरमेंसे होता है। वह न हो तबतक शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और अन्दरमें शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? उसका पुरुषार्थ बारंबार, बारंबार, बारंबार न हो तबतक ज्ञायकको पहचाननेका प्रयास (होना चाहिये)।
मैं ज्ञायक हूँ, इसके सिवा दूसरा कुछ मुझेमें नहीं है। मैं तो जाननेवाला तत्त्व कोई अपूर्व, अनुपम तत्त्व हूँ। ज्ञायक ज्ञाता मैं जगतसे भिन्न उदासीन ज्ञाता हूँ। ज्ञेय मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो उससे भिन्न हूँ। ऐसे उसके द्रव्य, गुण, पर्याय, परद्रव्यके द्रव्य, गुण, पर्याय सब समझकर भिन्न पडे तो होता है। पुरुषार्थ करे तो होता है। पुरुषार्थ किये बिना कुछ होता नहीं। पुरुषार्थसे सब होता है। उतनी अन्दर लगनी चाहिये। संसारसे उसे रस ऊतर जाना चाहिये, अंतरसे रुचि लगनी चाहिये, उतनी लगनी चाहिये, आत्मा बिना-ज्ञायक बिना कहीं चैन न पडे, ऐसी अंतरमें भावना होनी चाहिये, तो होता है। ऐसा असिधारा जैसा उपदेश तो भगवानका है और गुरुदेवका भी वैसा ही था।
मुमुक्षुः- हे माताजी! हमारे यहाँ हिंमतभाई वांचनके लिये तब हमने कहा, अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद कैसा आता है? तो कहा, माताजीके पास जाकर पूछना तो वे आपको बतायेंगे। तो आप, हमें अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद कैसा आता है, यह बतानेकी विनंती है।
समाधानः- वह कोई वाणीमें आये ऐसा है? आत्मामें जो स्वानुभूति होती है, उसमें वह पहचाना जाय ऐसा है। वह वाणीमें आये ऐसा नहीं है। वह तो मनसे, वचनसे, सबसे भिन्न-अगोचर है। स्वानुभूतिमें उसका वेदन हो, ऐसा है। बाकी तो उसका लक्षण बताया जा सकता है। बाकी दिखानेमें आये ऐसा स्वानुभूतिका स्वाद नहीं है।
जो इन्द्रियसे पर अतीन्द्रिय है, जिसका बाहरमें किसीके साथ मेल नहीं है, कोई