१५४ नमूना अथवा उसका दृष्टान्त नहीं है। ऐसा स्वरूप तो जब वह अन्दर जाय, उसे जाननेकी इच्छा हो, उसका कुतूहल हो तो अन्दर जाय। गुरुदेव कहते थे कि शास्त्रमें (आता है कि), छः महिने बारंबार उसकी धुन लगा और उसकी तीव्र जिज्ञासा करके बारंबार अन्दरसे तीखा उपदेश कर तो उसकी स्वानुभूति हो। बाकी वाणीमें (नहीं आ सकता)। वह तो वचनसे, मनसे सबसे अगोचर है। वह तो आत्माका स्वरूप, आत्मासे पहचाना जाय और आत्मासे वेदनमें आवे। ज्ञायक ज्ञायकसे पहचाना जाय, ज्ञायक ज्ञायकसे वेदनमें आवे। वह तो अनुपम और कोई अपूर्व है। वह वाणीमें आवे ऐसा स्वरूप नहीं है।
गुरुदेव कहते हैं, आचार्य कहते हैं, स्वानुभूतिका स्वरूप कोई अलग ही है। उसकी तू महिमा कर, उसका विश्वास कर, दृढता कर, विचारसे नक्की कर कि तत्त्वमें कोई अपूर्व शान्ति (भरी है)। जो स्वयं सुख-सुख कर रहा है, वह सुखस्वरूप स्वयं ही है। बाहरमें जो आश्चर्य मान रहा है, वह आश्चर्यका स्वरूप आत्मामें है। वह आश्चर्यका पिण्ड और आनन्दकारी तत्त्व है वह स्वयं ही है। जो बाहरमें आरोप कर कर रहा है, वह स्वभाव उसका है। बाहरसे कहींसे नहीं आता। बाहरमें देखे तो मात्र आकुलता भरी है। वह आश्चर्यकारी और आनन्दकारी तत्त्व स्वयं ही है, ऐसा तू नक्की कर तो वह अनुभवमें ज्ञात हो ऐसा है। बाहरसे ज्ञात हो ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- कल हिमंतभाईने माताजीका ४१२ नंबरका वचनामृत लिया था। मरण अवश्य आयेगा ही। उसमें भावविभोर हो गये। ...
समाधानः- आयेगा, मरण तो अवश्य आयेगा। जन्म-मरण तो संसारमें है ही। आत्मा ही शाश्वत है। मुझे मनुष्य जीवनमें आत्माका ही करना है। दूसरा कुछ नहीं है, सारभूत जगतमें तो एक आत्माका मुझे प्रयोजन है, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। किसीके साथ मुजे प्रयोजन नहीं है। एक आत्माका प्रयोजन है। जीवनमें कोई प्रयोजन हो तो मुझे देव-गुरु-शास्त्रका और एक आत्माका प्रयोजन हो, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है।
जन्म-मरण करते-करते मनुष्यभव प्राप्त हो, उसमें एक आत्माका स्वरूप पहचान लेने जैसा है कि जिससे भवका अभाव हो। ज्ञायक एक ज्ञाता तत्त्व कैसे पहचानमें आये, जो अपूर्व है। बस, वही शाश्वत है।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! संस्कार बोये हैं, ऐसा कब कहा जाय? अनुभवमें थोडा समय होनेके बाद?
समाधानः- अन्दर अपने संस्कार स्वयं पहचान सके। उस संस्कारका फल आये तब मालूम पडे, लेकिन संस्कार दृढ तो स्वयंको करने हैं। बारंबार मैं ज्ञायक, ज्ञायक बिना चैन पडे नहीं। अन्दर स्वभावकी रुचि लगे, विभावमें कहीं रस पडे नहीं। बारंबार