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सकता है, दूसरा नहीं पहचान सकता। अन्दरके गहरे संस्कार बाहरसे पहचानमें नहीं
आते। स्वयं पहचान सकता है कि मुझे गहरे संस्कार है कि नहीं? बाकी स्वानुभूति
होती है तब उसका फल आता है।
... कैसा उपकार किया है, उपदेश कितने बरसों तक बरसाया है। वह स्वयं अन्दर रुचिसे सुने तो अन्दर संस्कार डले बिना रहते नहीं। अन्दर यदि स्वयंको रुचि हो तो।
मुमुक्षुः- १५वीं गाथामें गुरुदेवश्री फरमाते थे कि यह तो जैनधर्मका प्राण है। तो उसमें क्या रहस्य है, यह बतानेकी विनंती है।
समाधानः- जैनधर्मका प्राण ही है। भूतार्थ स्वरूप आत्माको जाने, यथार्थ स्वरूप जाने और यथार्थ स्वरूपको पहचानकर अन्दर गहराईमें जाय। वह जैनधर्मका प्राण ही है। जिससे मुक्तिका मार्ग प्रगट हो और जिसमें साधकदशा प्रगट हो। आत्माका जो यथार्थ स्वरूप है उसे ग्रहण करे, उस पर दृष्टि जाय, ऐसा अपूर्व सम्यग्दर्शन प्राप्त करे और उसकी साधकदशा प्रगट हो, वह जैनधर्मका प्राण ही है।