१६० सन्मुख क्यों नहीं होता है? हमारेमें क्या क्षति रहती है? क्या कचास है? यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- शुद्धात्माकी ओर झुकाव नहीं होता है, (इसलिये) कचास तो है ही। स्वयंकी रुचिकी कचास है, पुरुषार्थकी कचास है, स्वयंकी लगनीकी कचास है। कचासके कारण आगे नहीं बढता। अपना ही कारण है, अन्य किसीका कारण नहीं है।
गुरुदेवने वाणीकी इतनी वर्षा की है। स्वयं अपनी ओर नहीं जाता है, उसका कारण स्वयंका ही है। स्वयं अटका है। "पोताना नयननी आळसे रे, निरख्या नहीं हरिने जरी'। अपनी आलसके कारण देखता नहीं, उसे देखनेका आश्चर्य नहीं करता है, उसे देखनेकी अन्दर लगनी नहीं लगी है। इसलिये अपना ही कारण है। अपनी आलसके कारण, अपनी रुचिकी मन्दताके कारण स्वयं अटककर खडा है। किसीका कारण नहीं है।
मुमुक्षुः- अंतिम प्रश्न है, शुद्धात्माकी प्राप्ति यानी कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति सहज साध्य है, ऐसा शास्त्रमें आता है और प्रयत्न साध्य है ऐसा भी शास्त्रमें आता है। तो इन दोनोंका मेल कैसे है, यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- दोनोंका मेल ही है। सहज साध्य है। वस्तु स्वभाव है, वह सहज है। वस्तु स्वभावको कहींसे लाना नहीं पडता कि वस्तु स्वभाव नहीं है और प्रगट होता है। जो स्वभावमें है वही प्रगट करना है। इसलिये सहज साध्य है। और अपने पुरुषार्थ बिना होता नहीं, वह कोई कर नहीं देता, स्वयं परिणतिको पलटे तो होता है। परिणति पलटे बिना होता नहीं। सहज भी है और पुरुषार्थ भी है। अपने स्वभावमेंसे प्रगट होता है, सहजपने होता है। परन्तु वह प्रयत्नसे होता है। दोनों है।
वस्तुका स्वभाव... जो चावलका स्वभाव है, उसमें जो स्वभाव है वह प्रगट होता है। आमके बीजमें जो स्वभाव है, वह प्रगट होता है। लेकिन वह सहज स्वभावको प्रगट करे, पुरुषार्थसे-प्रयत्नसे प्रगट करता है।
मुमुक्षुः- हमारे पुरुषार्थकी कचास है।
समाधानः- पुरुषार्थकी कचास है। सहज है अन्दर सब भरपूर है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थसे सच्ची शुरूआत कैसे करनी?
समाधानः- सच्ची शुरूआत.. अपना हृदय ही कह देता है कि यह सच्ची शुरूआत है। अपना हृदय यथार्थ कह देता है। यथार्थ रुचिवंतको अन्दरसे शान्ति होती है। जिसे यथार्थ नहीं आये, उसे तबतक सुख नहीं लगता। उसे शान्ति लगे नहीं। जिसे यथार्थ हो, उसे यथार्थ शान्ति और सुख लगे कि मेरा प्रयत्न सच्चा है। और विचार करके