Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 594 of 1906

 

ट्रेक-

९५

१६१
मैं जो ज्ञायकको ग्रहण करता हूँ, वह बराबर है। उसका हृदय अंतरसे कबूल करता
है। जो ऊपर-ऊपरसे अन्यथा करके पुरुषार्थ मान ले वह अलग बात है। बाकी सच्चे
आत्मार्थीको सच्चेमें ही संतोष होता है। सच्चे आत्मार्थीको थोडेमें संतोष होता नहीं।
वह जबतक न हो तबतक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, वह करना है। शास्त्रका चिंतवन,
ज्ञायक कैसे पहचाना जाय, यह करना है।

मुमुक्षुः- ... ज्ञान ज्ञानाकार रूप है। ज्ञेयको जानने प्रति वैसे ज्ञानाकाररूप ज्ञान स्वयं हुआ है। ज्ञेयका उसमें कुछ नहीं है।

समाधानः- ज्ञान ज्ञानरूप परिणमता है। ज्ञेय उसे ज्ञात नहीं करवाता, ज्ञान ज्ञानसे जानता है। उसमें ज्ञेयका कुछ नहीं है अर्थात ज्ञेयके कारण ज्ञान जानता है, ऐसा नहीं है। ज्ञान ज्ञानसे जानता है। ज्ञेय उसे ज्ञात करवाये कि तू मुझे जाना, ऐसे बलात ज्ञेय कुछ नहीं करता। ज्ञान ज्ञानसे ही जानता है। ज्ञान स्वयंसे जानता है। स्वयंको जानता है, अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है, लोकालोकको जानता है। ज्ञान स्वयं स्वयंसे जानता है। स्वतंत्र जानता है, ज्ञेयके कारण ज्ञान जानता है, ऐसा नहीं है। अज्ञानदशामें एकत्वबुद्धि हो रही है, इसलिये मानो ज्ञेयके कारण मैं जानता हूँ, ऐसी बुद्धि विपरीत बुद्धि है।

मैं ज्ञायक हूँ और मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, लेकिन ज्ञेयसे भिन्न हूँ। बाहरका कुझ ज्ञात ही नहीं होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। केवलज्ञान सब जानता है। साधक दशामें अनेक प्रकारके ज्ञान होते हैं, उस ज्ञानमें सब ज्ञात होता है। नहीं जानता है ऐसा नहीं है। लेकिन भिन्न रहकर जानता है। यह समझना चाहिये।

निश्चय और व्यवहार, उसकी सन्धि कैसे है, वह समझना चाहिये। द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतामें सब गौण होता है। परन्तु उसमें व्यवहार है ही नहीं, ऐसा हो तो आत्मा सर्वथा शुद्ध ही है। तो उसे शुद्धता करनेके प्रयत्नका अवकाश नहीं रहता है। शुद्ध द्रव्यदृष्टिसे है, परन्तु पर्यायमें अशुद्धता है। इसलिये उसका उसे ख्याल रखना है, उससे भिन्न होकर शुद्ध पर्याय कैसे प्रगट हो, उसकी साधना करनी बाकी रहती है। इसलिये निश्चय- व्यवहारकी सन्धि कैसे है, यह समझना।

मैं ज्ञायक हूँ, मुझसे स्वयं ज्ञायक हूँ। ज्ञेयके कारण ज्ञायक हूँ, ऐसा नहीं। परन्तु ज्ञेय है उस ज्ञेयको मैं जानता ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। उस पर राग नहीं करता है, उससे भिन्न पडता है, परन्तु स्वयं परिणति लोकालोक प्रकाशक ऐसा ज्ञानका स्वभाव है। ज्ञानका ऐसा स्वभाव है (कि) अनन्तको जाने। लोक, अलोकको जाने, सबको जाने। उसमें यदि मर्यादा आ जाय कि इतना जाने और इनता न जाने तो वह ज्ञान स्वपरप्रकाशक कैसे कहलाये? ज्ञान अनन्त.. अनन्त.. अनन्त जितना है सब