१६२ जानता है। भूतकाल अनन्त व्यतीत हुआ, जो पर्यायें अभी व्यतीत हो गयी, उन सब पर्यायोंको जानता है। वर्तमानको जानता है, भविष्यमें क्या होगा उसे जानता है। ऐसी ज्ञानकी अनन्त-अनन्त शक्ति है। भूत, वर्तमान, भविष्यको जाननेकी। वह इतना ही जाने तो उसकी शक्तिकी मर्यादा आ गयी। इसलिये ज्ञान अनन्त जाने ऐसा उसका स्वभाव है। इसलिये दोनों अपेक्षाएँ समझनी है। व्यवहार है, लेकिन व्यवहार कोई वस्तु ही नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। निश्चय-व्यवहारकी संधि कैसे है, वह भी समझाते हैं।
मुमुक्षुः- निश्चय-व्यवहारकी संधिका मतलब? समाधानः- द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे सब शुद्ध है, भेदभावकी अपेक्षासे सब गौण हो जाता है। परन्तु उसमें ज्ञायक स्वयं ज्ञायक है। लेकिन उसमें पर्यायमें अशुद्धता नहीं है, ऐसा नहीं है। और ज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे गुण लक्षणभेदसे हैं, वस्तुभेदसे नहीं है। यह सब, उसके भेद कैसे हैं, उसकी पर्याय कैसे है, उसमें ज्ञेय-ज्ञायकका सम्बन्ध कैसे है और कैसे नहीं है? यह सब समझना है। (यह) निश्चय-व्यवहारकी संधि (है)।