६ भी नहीं है। मात्र उपयोग जम गया, खुद आत्मा में एकाकार हो गया। इसलिये वह आनन्द अलग है। और सविकल्पता में आंशिक अस्थिरता है। इसलिये जितनी दशा भेदज्ञान की धारा की जो चालू है उस शान्ति का उसे वेदन है।
प्रश्नः- जात एक ही है कि अलग कही जाती है? जात तो एक ही है न?
समाधानः- जात माने शान्ति अलग है। शान्ति और आनन्द, ये दोनों अलग चीज है। है सब पर्याय शान्ति, आनन्द की पर्यायें हैं, लेकिन वह आनन्द अलग है और यह शान्ति अलग है।
प्रश्नः- अतीन्द्रिय के समय वह अलग प्रकार का है।
समाधानः- वह जाति अलग है। सविकल्पता में जो शान्ति है उससे निर्विकल्प दशा का आनन्द अलग चीज है, वह अलग है, एक नहीं है। यह थोडा है और वह अधिक हो गया, ऐसा भी नहीं है। वह जाति अलग है। अनुपम है, जिसे उपमा लागू नहीं होती। वह अलग है। मात्र आत्मा के आश्रयसे जो लीनता आती है वह अलग आती है, अन्दर लीन होकर आती है। वह सिद्धदशा के समान आनन्द है। वह अलग है। सविकल्पता की और उसकी जाति दोनों अलग है। सब एक चारित्रदशा की पर्याय कही जाती है, लेकिन वह जाति अलग है। वह सिद्धदशा का नमूना कहा जाता है, वह सविकल्पता में नहीं है। वह अतीन्द्रिय नहीं है, शान्ति का वेदन है, ज्ञायक का वेदन है।
प्रश्नः- आत्मा में यदि अंतर्मुहूर्त स्थिर हो तो सीधा केवलज्ञान प्राप्त कर ले, इतना उग्र है। वह आनन्द की जाति भी अलग..
समाधानः- वह आनन्द की जाति भी अलग और उसमें यदि स्थिर हो जाय, अंतर्मुहूर्तसि अधिक स्थिर होवे, अंतर्मुहूर्त का ही उपयोग है, उसमें लीनता बढकर चारित्र की ओर यदि श्रेणी जाये तो केवलज्ञान होता है। चारित्रदशा नहीं है अभी, जो मुनिओं की दशा होती है वैसी दशा (नहीं है)। शिवभूति मुनि को वह दशा अंतर्मुहूर्त में आ गयी तो केवलज्ञान प्रगट हुआ। अंतर में ही यदि चारित्र की दशा आ जाये तो हो। लेकिन उसे अंतर में मुनिदशा चाहिये, तो केवलज्ञान होता है।
प्रश्नः- सम्यग्दर्शन की भूमिका में जो शान्ति की धारा चल रही है, वह परिणति अतीन्द्रिय परिणति नहीं कही जाती है न? इन्द्रियाधीन...?
समाधानः- इन्द्रियों की आधीन वह नहीं है, खुद के आधीन है।
प्रश्नः- अतीन्द्रिय परिणति को अतीन्द्रिय शब्द.. अतीन्द्रिय परिणति चल रही है, ऐसा कह सकते हैं?
समाधानः- इन्द्रियों के आधीन नहीं है, उसमें इन्द्रियों का आश्रय नहीं है इसलिये