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अतीन्द्रिय कहें। उसे आश्रय आत्मा का है, शान्ति के वेदन को, उसे इन्द्रियों का आश्रय नहीं है। अतीन्द्रिय है, है अतीन्द्रिय, लेकिन अभी उसका उपयोग बाहर है न, इसलिये जो निर्विकल्प दशा का आनन्द है वैसा आनन्द नहीं आता।
प्रश्नः- कहलाये अतीन्द्रिय, फिर भी दोनों के बीच..
समाधानः- उपयोग नहीं हुआ है न, परिणति अतीन्द्रिय है, उपयोग नहीं है, उपयोग बाहर है। बाहर उपयोग में सब आश्रय छूट जाय, मात्र चैतन्य में उपयोग जम जाय तो सिद्धदशा का आनन्द आता है।
प्रश्नः- माताजी! मुनि जो बारंबार निर्विकल्प निर्विकल्प निर्विकल्प.. बाह्य शुभाशुभ भाव में तो इतनी ताकत नहीं है, तो यह परिणति-शुद्ध परिणति वहन कर रही है वह उपयोग को लाती होगी न?
समाधानः- शुद्ध परिणति स्वयं की ओर उपयोग को खींच लेती है। प्रयत्नरूप दशा उसकी चालू है। शुद्ध परिणति जो आंशिक प्रगट हुई है वह परिणति उपयोग को अपनी ओर खींच लेती है। अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त में खींच लाती है। उसकी दशा ही ऐसी है कि ज्यादा टिक ही नहीं पाता। विकल्प की धारा में मुनि की परिणति टिक ही नहीं पाती। बारबार परिणति स्वरूप में जम जाती है। ऐसी उनकी पुरुषार्थ की धारा सहज है। परिणति बार-बार उपयोग को खींच लेती है।
प्रश्नः- उपयोग बाहर में हो तब शुद्ध परिणति को लब्ध है ऐसा कह सकते हैं?
समाधानः- हाँ, उसे लब्ध कहते हैं।
प्रश्नः- वैसे तो ज्ञान में ही लब्धपना होता है। लब्ध और उपयोग तो परिणति को ही...
समाधानः- लब्ध कह सकते हैं। लेकिन वह लब्ध ऐसा नहीं है कि एक ओर पडा है। उसका लब्ध उघाडरूप है। उसे ख्याल में आये इसप्रकार कार्य करता है। लब्ध ऐसा है। उपयोग की अपेक्षासे लब्ध कहते हैं, बाकी परिणति कार्य करती है। इसलिये लब्ध है वह ख्याल में नहीं आये ऐसा नहीं है।