६० त्यागी हो जाये, साधु हो जाये यानी चारित्र (हुआ, ऐसा) माने। भाव कदाचित ठीक रखे तो वह चारित्र वास्तविक चारित्र नहीं है। आत्मा स्वयं है, उस आत्माकी प्रतीत करनी, यथार्थ श्रद्धा करनी कि मैं आत्मा हूँ और शरीर नहीं हूँ। और यह विकल्प होते हैं वह मेरा स्वरूप नहीं है। सिद्ध भगवान जैसा मेरा स्वरूप है। ऐसी स्वयंकी परिणति प्रगट हो, ऐसे अन्दरसे बार-बार ऐसा ही लगे कि मैं इन सबसे भिन्न हूँ। भिन्न हूँ-भिन्न हूँ ऐसा करते (परिणति) हो, आनन्द प्रगट होता है। सिद्ध भगवान तो पूर्ण हो गये। ... तो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैैं। वही मुक्तिका मार्ग है।
उसे अन्दरसे सब छूट जाता है। इस संसारका स्वरूप... उसे अन्दरसे ऐसा (लगे) कि यह कुछ भी मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप भिन्न है, ऐसा अंतरसे (हो)। अनादिका अभ्यास है, राग-द्वेषमें पडा है, एकत्वबुद्धि है। बारंबार उसके लिये प्रयत्न करे तो होता है। नहीं तो वह नहीं होता। मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे भेदज्ञान करे तो होता है। बारंबार मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ। आत्माको पहचानकर होना चाहिये कि यह जाननेवाला है वही मैं हूँ, यह शरीर कुछ नहीं जानता, ऐसे होना चाहिये। बहुत शास्त्रोंको जान लिया, ऐसे नहीं। आत्माको जाने तो उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। आत्माको जाने, उसके साथ भले ही नौ तत्त्व आदि जाने, परन्तु मुख्यरूपसे आत्माको जानना चाहिये। नौ तत्त्वको जाने, शास्त्रकी श्रद्धा होती है, जिनेन्द्र देव जो वीतराग होते हैं वह देव हैं, जो गुरु आत्माकी साधना करते हों, वे गुरु। इसप्रकार सच्चे देव- गुरु-शास्त्र (को जाने)। शास्त्र, जिसमें आत्माकी बातें आती हो, वह शास्त्र है। लेकिन अन्दर आत्माकी श्रद्धा साथमें होनी चाहिये, तो वह सम्यक है। मात्र बाहरका हो तो वह स्थूल श्रद्धा है। उसे व्यवहार कहते हैं।
भले वह नहीं हो तबतक सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी (श्रद्धा करे, लेकिन मात्र उससे) मोक्ष नहीं होता, मोक्षा तो आत्माको पहचाने तो ही होता है। उसका नाम सम्यग्दर्शन है। आत्माको जाने वह ज्ञान, आत्मामें लीनता करे, बाहरसे छूटकर आत्माका जो स्वभाव है, उसमें स्वयं लीन हो तो वह चारित्र है। बाहरसे व्रत धारण किये, सब किया परन्तु अन्दर स्वयं आत्मामें लीन नहीं हो तो वह चारित्र सिर्फ बाहरका है। बहुत लोग चारित्र लेते हैं, भावमें कुछ नहीं होता। ऐसा चारित्र नहीं।
सच्चा चारित्र तो ऐसा आता है कि आत्मामें बारंबार लीन होता है और बाहर आये तो उसे शुभभाव होते हैं। देव-गुरु-शास्त्र, नौ तत्त्व आदि, शास्त्र के विचार आते हैं। वह तो शुभभाव है, लेकिन अन्दर आत्मामें बारंबार लीन हो तो वह चारित्र है। उसके साथ भले उसे त्याग हो, मुनिदशा हो, सब होता है, परन्तु आत्माका (आश्रय) हो तो वह चारित्र कहलाता है। आत्माको समझे बिना बाहरसे चारित्र ले, वह वास्तविक