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समाधानः- भेदका अभ्यास होना चाहिये। पहले उसे सहज नहीं होता है। सहज भले नहीं हो, लेकिन उसके विचारमें उस प्रकारसे आता है। सहज भेदज्ञानकी धारा हो निर्विकल्प होनेके बाद, वह अलग बात है, उसे तो सहज है। प्रत्येक कार्यमें सहज ही है। उसके अभ्यासमें चौबीस घण्टेमें जो-जो कार्य और जो-जो विचार चलते हों, उसके अन्दर स्वयंको कितनी बार भिन्नता भास्यमान होती है?
मुमुक्षुः- भास्यमानमें तो माताजी, ऐसा है कि विकल्पपूर्वक तो विचारमें लेते हैं कि मैं ज्ञायक हूँ, यह मुझसे भिन्न है। राग हो तो भी मुझसे भिन्न है। परद्रव्यकी कोई क्रिया होती हो तो वह भी मैं करता नहीं हूँ।
समाधानः- लेकिन जब वह किसी कार्यमें तन्मय हुआ हो उस वक्त उसे भिन्नता रहती है या नहीं?
मुमुक्षुः- वह नहीं रहता।
समाधानः- जिस समय तन्मय होकर कोई विचारोंमें उलझा हो, उस वक्त उसे भिन्नता रहती है या नहीं? तो भेदज्ञानके अभ्यासमें उसकी क्षति है।
मुमुक्षुः- उतना भेद अभ्यास होना चाहिये।
समाधानः- हाँ, भेदज्ञानका अभ्यास होना चाहिये। बार-बार नक्की करे कि मैं भिन्न ही हूँ। विचारोंसे नक्की करता रहे, लेकिन उसके कायामें, उसकी परिणतिमें वह कितनी बार भिन्न रह सकता है?
मुमुक्षुः- विकल्पपूर्वक भी निरंतर भिन्न नहीं रहता है, बात सच्ची है।
समाधानः- हाँ, भिन्न कहाँ रह सकता है? अभी तो यह भेद अभ्यासकी बात है। सहज तो बादमें होता है। बादमें क्या करना है? परन्तु यह भेदज्ञानका अभ्यास करना है। भिन्न नहीं रह सकता है। साधनाकी पर्याय तो ऐसे ही प्रगट होती है कि मैं चैतन्य हूँ, ऐसी दृष्टिका जोर और आश्रय कब हो? कि भेद-भिन्न पडनेका प्रयत्न अभ्यास हो तो उसका आश्रय बलवानरूपसे होता है, नहीं तो बलवानरूपसे विकल्पका आश्रय रह जाता है। विकल्पसे नक्की करता है। भले जोरसे नक्की करे कि मैं भिन्न ही हूँ। मैं भिन्न ही हूँ, भिन्न ही हूँ यह यथार्थ है। तो उसे इतना अन्दर लगे कि मैं भिन्न ही हूँ। भिन्नरूप रहता तो नहीं है। उतनी अन्दर रुचिकी तीव्रता होनी चाहिये कि मुझे निश्चित है कि मैं भिन्न हूँ। लेकिन भिन्न रह नहीं सकता है। उतना प्रयास नहीं है।
निर्णय किया कि इस गाँवमेें जानेसे नुकसान है। ऐसा नक्की किया। इसमें सुखका कारण नहीं है, इस ओर जानेसे ही सुख है। ऐसा नक्की किया तो फिर जो सुखका रास्ता है, सुखका धाम है वहाँ जानेका प्रयत्न-प्रयास करता नहीं है, उस ओर कदम