Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

१७४ बढाता नहीं। विचार करके खडे-खडे नक्की करता है लेकिन उस ओरका प्रयास कितना होता है? नुकसान है, ऐसा नक्की किया तो क्यों जाता है? उतनी उसकी रुचिकी क्षति है। उस ओर उसे दुःख लगे तो भी, उस ओर दुःखका गाँव-नगर है तो भी उस ओर जाता है। और इस ओर कितनी बार प्रयास करता है?

श्रद्धाकी बलवत्तरता हो तो उसे कार्यान्वित करना चाहिये। विचारसे भले श्रद्धा करता हो। पहले ऐसे विचारपूर्वक श्रद्धा हुए बिना रहती नहीं। लेकिन उसमें ऐसा है कि धीरे-धीरे हो, उतावलीसे हो या धीरे-धीरे हो परन्तु मार्ग ग्रहण किया है, जिस मार्गको विचार करके ग्रहण किया उसे तो बराबर टिकाकर उस ओर जानेका प्रयत्न करना। तो उसे आगे जानेका अवकाश है। तेरी श्रद्धा तू बराबर रखना। शास्त्रमें आता है, हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना, नहीं तो श्रद्धा कर्तव्य है। श्रद्धा यानी उसमें सब ले लेना। वह तो सम्यग्दर्शनपूर्वक है, फिर भी श्रद्धा तो बराबर रखना। प्रयत्न तेरा कम हो, धीरे हो, त्वरासे हो, कोई बार थक जा तो भी तेरी विकल्पपूर्वककी श्रद्धाको बराबर दृढ रखना। तो तुझे आगे बढनेका अवकाश है।

यदि तू थक जा और आगे नहीं बढ सके तो थककर तू दूसरे रास्ते पर मत जाना। उसे तो बराबर ग्रहण करके रखना। गुरुदेवने जो मार्ग बताया और तुने विचारसे अंतरसे नक्की किया, स्वभावका मिलान करके नक्की किया तो उसे तो तू बराबर ग्रहण करके रखना। उसे तो तू सँभालकर ही रखना। उससे भी आगे बढे वह अलग बात है, लेकिन जहाँ खडा है उतना तो सँभालकर रखना। यह धन सँभालनेका कहते हैं न? तेरे गहने, धन आदि (सँभालकर रखना)।

वैसे पंचमकालमें गुरुदेव मिले और यह जो मार्ग बताया, वह पंचमकालमें मिलना मुश्किल था। वह तो गुरुदेवने बताया और तूने विचारसे नक्की किया तो उसे बराबर सँभालकर रखना। उतनी दृढता तू बराबर रखना। इधर-ऊधर मार्ग पर कहीं मत जाना।

मुमुक्षुः- ज्ञायकको स्वयंको ज्ञायकपने ... नहीं और सविकल्प दशामें भी उसे उस प्रकारका प्रयत्न करना चाहिये कि मानो राग हुआ तो रागसे भिन्न जाननेवाला है, वह जाननेवाला भिन्न रहता है, ऐसा उसे अभ्यास करना चाहिये। तो आपके कहनेके बाद इस प्रकार विचारमें लिया, लेकिन अभी भी भावमें बराबर बैठता नहीं। आप दो-चार दृष्टान्त देकर इस बातको अधिक स्पष्ट कीजिये।

समाधानः- अमुक विचारसे, अमुक विचारसे एवं युक्तिसे कहनेमें आये। बाकी करना तो स्वयंको ही पडता है। कैसे स्वयं भिन्न पडता है, वह तो जिस प्रकारकी स्वयंकी भूमिका हो और जिस प्रकारका स्वयंका प्रयत्न हो, उस प्रकारसे स्वयं ही भिन्न पडता है। यह तो एक विचार एवं युक्तिसे कहनेमें आता है कि, ऐसा विचार