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मुमुक्षुः- वर्धमानस्वामिका निर्वाण महोत्सव है, तो इस संदर्भमें प्रश्न उत्पन्न होता है कि महावीर स्वामी दसवें भवमें सिंह अवस्थामें थे, तब मांसाहार करते हैं, इसलिये भूमिका तो अशुभ थी। उस वक्त मुनिओंने नीचे ऊतरकर उपदेश दिया कि यह तेरा सम्यकत्वका समय है तो प्रगट कर। तो उसमें कोई काललब्धिका कारण है या पुरुषार्थका कारण है? या उस वक्तकी ऐसी ही योग्यता थी?
समाधानः- सम्यग्दर्शनका काल है इसलिये पुरुषार्थके साथ काललब्धि है। पुरुषार्थके बिना वह होता नहीं। पुरुषार्थ करता है इसीलिये काललब्धिका सम्बन्ध होता है। पेटमें कुछ भी पडा हो, उसके साथ सम्बन्ध नहीं है। बादमें तो उसके परिणाम पलट गये थे। पहले उसे हिंसक परिणाम थे, वह परिणाम तो पलट गये हैं। इसलिये पेटके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
बाकी उसकी काललब्धि यानी काललब्धिका पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। वह स्वयं पुरुषार्थ करता है। जो पुरुषार्थ करता है उसे तो ऐसा ही होता है कि मैं कैसे मेरे आत्मामें जाऊँ? अरे..! यह क्या हो रहा है? अरे..! मैं तो आत्मा हूँ। मैं तो जाननेवाला ज्ञायक हूँ। और मुनिओंने कहा कि आप तो तीर्थंकर होनेवाले हो। तो एकदम असर हो गयी। अरे..! ये मैं क्या कर रहा हूँ? उसके स्वयंके परिणाम पलट जाते हैं और स्वयं तो पुरुषार्थ करता है। काललब्धिके साथ पुरुषार्थका सम्बन्ध है, लेकिन पुरुषार्थ करनेवालेको तो ऐसा ही है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। यह क्या किया? अब मैं मेरे आत्मामें जाऊँ। यह मुझे योग्य नहीं है। अरे..! यह तो हिंसक परिणाम है, यह तो क्रूर है। मैं तो आत्मा हूँ। यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न। मुनि उपदेश देते हैं तो उसके भाव एकदम पलट जाते हैं। वह तो पुरुषार्थसे होता है।
काललब्धि उसे नहीं कर देती। स्वयं पुरुषार्थ करता है। मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, यह शरीर भिन्न, मैं भिन्न। यह सब क्रूर परिणाम आते हैं, वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। यह मैं चैतन्यतत्त्व अन्दर आत्मा हूँ। यह सब क्या? ऐसे स्वयं पलटता है। अन्दरसे भेदज्ञान होता है। यह सब भिन्न है, मैं तो आत्मा हूँ। ऐसा करके आत्माकी ओर मुडता है और पलट जाता है। पूरी परिणति पलट जाती है। आँखमेंसे आँसू आते