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मुमुक्षुः- अभी दो दिनसे एक प्रश्न चल रहा है-भेदज्ञानके अभ्यासका। उसमें एक प्रश्न होता है कि तत्त्वज्ञानकी दृढता होनेके बाद यह कार्यकारी हो या तत्त्वज्ञानकी दृढता पहले हो, उसके बाद इस प्रकारका अभ्यास करना होता है?
समाधानः- तत्त्वज्ञाकी दृढता पहले होती है। बिना दृढताके भेदज्ञानका बल नहीं आता। तत्त्वज्ञानकी दृढता, चैतन्य ओरकी महिमा, विभावसे विरक्ति सब सातमें हो तो ही उसे भेदज्ञानका बल आवे। अन्दर मैं चैतन्य ज्ञायक भिन्न हूँ, उसमें उसे सुख लगे। अपने अन्दर दृढता आनी चाहिये। यही मेरा स्वभाव है और यह सब निःसार है, सारभूत आत्मा है। यह सब आकुलतायुक्त है। उससे विरक्ति। भले उसकी पात्रता अनुसार हो। यथार्थ परिणतिरूप बादमें होता है। परन्तु उसकी श्रद्धा हो तो ही भेदज्ञानका अभ्यास कर सकता है। श्रद्धाके बिना नहीं होता।
भेदज्ञानके अभ्यासमें उसे बल आता है कि मैं भिन्न ही हूँ। उस अभ्यासमें वह स्वरूपकी ओर स्थिर होनेका प्रयत्न करता है, इसलिये उसमें ध्यान समाविष्ट हो जाता है। समझे बिना ध्यान करे तो तरंगरूप होता है। बलात विकल्पको दबाने जाय, (तो नहीं होता)। मैं भिन्न, इस प्रकार उसे स्वभाव भिन्न, विभावसे मैं भिन्न, ऐसा अभ्यास करे तो स्वरूपमें स्थिर हो। स्वमें एकाग्रता हो, स्वयंमें स्थिर हो, वही उसका ध्यान है।
मुमुक्षुः- पाया तो तत्त्वज्ञानका ही चाहिये।
समाधानः- तत्त्वज्ञानका, पाया तो वही होता है। तत्त्वज्ञानकी श्रद्धा, उसके साथ- तत्त्वज्ञानके साथ यह सब है। यथार्थ तत्त्वार्थ श्रद्धान।
मुमुक्षुः- नहीं तो निश्चय-व्यवहारकी संधि भी टिकनी चाहिये...
समाधानः- यथार्थ श्रद्धान होना चाहिये। समझनपूर्वक निश्चय-व्यवहारकी संधि होनी चाहिये। मैं द्रव्य शक्ति अपेक्षासे शुद्ध हूँ, मैं शक्तिमें मुक्त स्वरूप ही हूँ। मेरा स्वभाव मुक्त है। यह बन्धा हूँ, आदि सब कर्मके संयोगसे है। स्वभावसे मुक्त हूँ, लेकिन पर्यायमें यह बन्धन है। निश्चय-व्यवहारकी संधि होती है। संधिके बिना, समझ बिना मैं भिन्न ज्ञायक हूँ, कैसे आये? आत्मा ज्ञायक और यह सब मुझसे भिन्न है। परन्तु यह विभाव जो होता है, वह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। वह सब उसे ज्ञानमें है। स्वभावसे शुद्ध हूँ, पर्यायमें अशुद्धता है। सबका ज्ञान उसे साथ होता है और ऐसी श्रद्धा भी साथमें होती है। श्रद्धा एवं ज्ञान दोनों साथ होते हैं।
शुद्धात्मप्रवृत्ति लक्षण। शुद्धात्म तत्त्वमें प्रवृत्ति करे यथार्थपने। स्वभावसे मैं शुद्धात्मा हूँ और पर्यायमें अशुद्धता है। पर्याय भी शुद्धताको प्राप्त होती है। स्वयं स्वभावको पहचाने और श्रद्धा-ज्ञान यथार्थ करके उसमें लीनता करे, उसमें स्थिरता करे तो प्रगट शुद्धता होती है। स्वभावसे मुक्त लेकिन पर्यायमें मुक्ति नहीं है। पर्यायमें भी मुक्त होता है।