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मोक्ष पधारे। दूसरा कोई मोक्षका मार्ग नहीं है, ऐसा आता है।
शुद्धात्मप्रवृत्ति लक्षण ऐसा आया। और भेदज्ञान कहाँतक अविच्छिन्न धारासे भाना? कि जबतक ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाय। ज्ञान जबतक स्थिर न हो तबतक भेदज्ञान भाना। .. सम्यकत्व हो तो भी, दोनों अपेक्षा है। सम्यग्दर्शन न हो तबतक भाना और सम्यग्दर्शन हो जाय तो भी अविच्छिन्न धारासे ऐसे ही भेदज्ञान केवलज्ञान पर्यंत भाना। स्वरूपमें स्थिर हो जाय इसलिये विकल्प छूट जानेके बाद भेदज्ञानका कुछ नहीं रहता, निर्विकल्प दशामें। उग्र होते-होते केवलज्ञानको प्राप्त करता है।
मुमुक्षुः- कल तो बहुत आसान बात लगती थी। कल तो ऐसा लगता था कि आत्मा खाता नहीं, चले तो लगे, आत्मा चलता नहीं।
समाधानः- खाता नहीं है, लेकिन वह स्वभावसे। राग आता है वह किसको आता है? यह तो समझना चाहिये न। उसके साथ समझना (चाहिये)। शरीर भिन्न, यह भिन्न, सब भिन्न, पेट भिन्न, सब भिन्न। परन्तु अन्दर जो राग होता है, उस रागमें स्वयं जुडता है। राग मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसे भिन्न पडता है। परन्तु साथमें ख्याल है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे (होता है)। मैं वीतराग नहीं हो गया हूँ। ऐसा तो समझता है।
मैं उससे भिन्न हूँ, जाननेवाला हूँ, परन्तु यह पुरुषार्थकी मन्दतासे राग किसको होता है? उसका बराबर ख्याल है। इसीलिये भेदज्ञानका अभ्यास करता है, नहीं तो करे क्यों? भेदज्ञानका अभ्यास नहीं करना था, वह तो भिन्न ही है। फिर अभ्यास करनेका कारण क्या? भ्रान्तिमें पडा है, एकत्वबुद्धि है, इसलिये पुरुषार्थ करता है। भिन्न ही हो तो पुरुषार्थ, भेदज्ञान करनेका कोई कारण नहीं रहता। भिन्न पडनेका कारण यह है कि एकत्वबुद्धि हो रही है।
मुमुक्षुः- सभी पहलूओंसे ख्याल करना चाहिये।
समाधानः- अन्दर शुद्धात्मामें... जिस स्वरूप हूँ, उस रूप हो जाउँ। राग है, उस रागसे भिन्न हूँ। भिन्न होनेपर भी राग होता है। उससे स्वभावसे भिन्न है। इसलिये उसे ख्यालमें है। उससे भिन्न पडकर, उग्रता करते-करते वीतराग दशाकी ओर जाता है। स्वभावसे भिन्न हूँ। भेदज्ञानका अभ्यास (करता है), लेकिन उसमें अस्थिरता है उसका उसे ख्याल है।
पुरुषार्थ क्यों चलता है? एकत्वबुद्धिको तोडनेके लिये है। नहीं तो स्वभावसे तो मुक्त ही है, तो फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट करनी, आत्माका आनन्द प्रगट करना, मैं स्वभावरूप परिणमित हो जाऊँ, ऐसी भावना रहनेका