मुमुक्षुः- माताजी! ज्ञानगुणको ऊपर-ऊपरसे पहचानता है, गहराईसे नहीं पहचानता है। तो कृपा करके गहराईसे किस तरह पहचाने?
समाधानः- गहराईसे पहचाननेका स्वयं प्रयत्न करे। यह ज्ञान है वह कोई वस्तुका है। बिना वस्तुके ज्ञानगुण नहीं है। ज्ञान कोई सत पदार्थका गुण है। ऐसा विचार करे तो पहचाने। ज्ञान यानी मात्र जानता है, इस तरह पहचानता है। परको जाने वह जाननेवाला ज्ञानगुण है, इस तरह पहचानता है। परन्तु वह ज्ञान है वह कोई पदार्थका गुण है। पदार्थ बिनाका वह गुण नहीं है। इस तरह अन्दर स्वयं जिज्ञासा लगनी लगाये तो पहचान सके ऐसा है। परन्तु उसकी लगनी ही नहीं लगाता।
मुमुक्षुः- श्रीमदजीने ऐसा कहा है कि, जीवकी उत्पत्ति जीवपदमां जणाय छे, वह कैसे? तो किस अपेक्षासे? बात बराबर कहते हैं। परन्तु जीवकी उत्पत्ति जीवपदमां जणाय छे। देह शोक रोग शोक दुःख मृत्यु, देहनो स्वभाव जीवपदमां जणाय छे, वह तो समझमें आता है। परन्तु जीवकी उत्पत्ति जीवपदमें जणाय छे।
समाधानः- जीवकी उत्पत्ति?
मुमुक्षुः- हाँ, ऐसा शब्दप्रयोग किया है।
समाधानः- अन्दर स्वभाव है, सब जीवमें जाननेमें आता है। परन्तु मूल वस्तुकी उत्पत्ति नहीं (होती)। उसकी पर्यायमें फेरफार हो, वह जीवमें जाननेमें आते हैं। उसकी पर्यायें पलटती हैं, वह जीवमें ज्ञात होती है। वस्तुकी उत्पत्ति तो होती नहीं। उसमें हो तो अपेक्षासे लिखा होगा। पर्यायमें फेरफार होते हैं। वह उसमें जाननेमें आते हैं।
विभाव पर्याय हो रही है, विभावमेंसे स्वभाव हो, स्वभावकी पर्याय होती है, सब जीवमें जाननेमें आती है। उसे जाननेवाला जीव है। द्रव्य-गुण-पर्याय सबको जाननेवाला जीव है। वह स्वयं सब जानता है। स्वयं स्वयंको जानता है, स्वयं पर अन्य पदाथाको जाने। ऐसा उसका ज्ञानगुण कोई असाधारण है। ज्ञान ऐसी अनन्तासे भरा है कि उसमें सब ज्ञात होता है। ज्ञानका स्वभाव ऐसा है।
अनन्त काल गया तो भी उसका ज्ञानस्वभाव तो वैसाका वैसा है। वह जान सके ऐसा है। यह शरीर भिन्न, यह विभाव स्वभाव अपना नहीं है, स्वयं ज्ञायक है। स्वयं