१८४ स्वयंको जान सकता है। उत्पत्ति यानी उसकी पर्यायकी उत्पत्ति। वस्तु तो उत्पन्न नहीं होती।
मुमुक्षुः- सत शब्द है न? सत चित और आनन्द। त्रिकाल टिकनेवाला है, वह कैसे ख्यालमें आये कि यह त्रिकाल तीनों काल टिकनेवाला जीव है?
समाधानः- जो है वह है ही। जो है उसका नाश नहीं होता। ज्ञानगुण है वह किसी जडमेंसे नहीं आता। ज्ञानगुण है कोई वस्तुके आश्रयसे रहा है। जो है, वस्तु है, उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता। जो ज्ञान ख्यालमें आता है, उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता है, वह ज्ञान स्वयं है। ज्ञान स्वयं है तो ज्ञान जिसके आश्रयसे रहा है, ऐसा एक पदार्थ होना चाहिये।
वह सत है। सत त्रिकाल टिकनेवाला है। जो है वह तीनों काल है। वह शाश्वत है और पदार्थरूप है। मात्र गुण नहीं, विचार करे तो ज्ञानगुण गंभीरतासे भरा है। उसमें अनन्तता भरी है।
मुमुक्षुः- एक ज्ञानगुणकी डोरीसे सब पकडमें आता है।
समाधानः- सब पकडमें आये ऐसा है। हाँ। ज्ञान है वह सत है। सत है, उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता। चैतन्यस्वरूप है। ज्ञान चेतनतासे भरा है। ज्ञान जड नहीं है, ज्ञान चैतन्यस्वरूप है। ज्ञान ज्योतिस्वरूप चमत्कारयुक्त है, ज्ञान दिव्यस्वरूप है। ऐसी दिव्यतासे भरा है जो ज्ञान है वह स्वयंसिद्ध है। ज्ञान है, वह ज्ञान कोई पदार्थरूप है, पदार्थका स्वरूप है वह ज्ञान है।
मुमुक्षुः- स्वयंसिद्ध है।
समाधानः- स्वयंसिद्ध है। वह अनादिअनन्त है। किसीने उसे उत्पन्न नहीं किया है, कोई जडमेंसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। अथवा किसीसे ज्ञानका ज्ञान नहीं होता। वह स्वयंसिद्ध है। ज्ञान है वह अनन्तासे भरा दिव्यस्वरूप है। चैतन्य स्वयं दिव्यमूर्ति है। उसका ज्ञान भी दिव्यस्वरूप है।
मुमुक्षुः- एक आनन्दगुण बाकी रहता है। आनन्दका कैसा आभास होता है? कि ऐसा दिव्य ज्ञान है तो साथमें आनन्द भी होना ही चाहिये।
समाधानः- ज्ञानमें जो दिव्यता भरी है, ऐसा आनन्दगुण.. बाहरमें विचार करे तो जड पदार्थमेंसे, जडमेंसे आनन्द नहीं आता है। कहीं भी आनन्द लेने जाय तो आनन्द (मिलता नहीं)। वह तो थक जाता है, आनन्द लेने जानेमें। अपनी कल्पनासे आरोप करता है। चलनेमें, फिरनेमें मान-बडप्पन कहीं भी आनन्द लेने जाता है। खानेमें- पीनेमें सबमें थक जाता है। कल्पनासे सुख मानता है। अपने विचार कहीं और चलते हो तो चलनेमें, फिरनेमें, मान, बडप्पनमें कहीं उसे आनन्द नहीं आता। शोकमें बैठा